Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.१५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अमी हि त्वां सुरसङ्घाः विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।।२१।।

वे ही देवताओं के समुदाय आप में प्रविष्ट हो रहे हैं । उनमेंसे कई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप के नामों और गुणों का कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धों के समुदाय कल्याण हो ! मङ्गल हो ! ऐसा कहकर उत्तम उत्तम स्तोत्रों के द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं ।

व्याख्या—

देवता, महर्षि, सिद्ध आदि सभी भगवान्‌ के ही विराट्‌रूप के अंग हैं । अतः प्रविष्ट होने वाले, भयभीत होने वाले, भगवान्‌ के नामों और गुणों का कीर्तन करने वाले और स्तुति करने वाले भी भगवान्‌ हैं और जिनमें प्रविष्ट हो रहे हैं, जिनसे भयभीत हो रहे हैं, जिनके नामों और गुणों का कीर्तन कर रहे हैं तथा जिनकी स्तुति कर रहे हैं, वे भी भगवान्‌ हैं ।

ॐ तत्सत् !

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