॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥ ३०॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥ ३१॥
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्त का पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।
व्याख्या—
ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धिकी प्रधानत रहती है, इसलिये उनमें पहले बुद्धिमें समता आती है-‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु’ (गीता २ । ५४-६८) । ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धि व्यवसित (एक निश्चय्वाली) होती है- ‘बुद्धया विशुद्धया युक्तः’ (गीता १८ । ५१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ (२ । ४१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः’ (२ । ४४)। बुद्धि व्यवसित होनेसे अहम्का सर्वथा नाश नहीं होता; क्योंकि अहम् बुद्धिसे परे है-‘भूमिरापो$नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं... (गीत ७ । ४) । अतः मुक्त होनेपर भी अहम्की सूक्ष्म गन्ध रह जाती है, जो बन्धनकारक तो नहीं होती, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाली होती है । परन्तु भक्तियोगमें स्वयं (भगवान्के अंश) की प्रधानता रहती है, इसलिये भक्त स्वयं व्यवसित होता है-‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ । स्वयं व्यवसित होनेसे अहम् सर्वथा नहीं रहता; क्योंकि स्वयं अहम्से परे है । मन-बुद्धिमें बैठी हुई बातकी विस्मृति हो सकती है, पर स्वयंमें बैठी हुई बातकी विस्मृतिकभी नहीं हो सकती । स्वयंमें जो बात होती है, वह अखण्ड रहती है । इसलिये ‘मैं भगवान्का ही हूँ और भगवान् ही मेरे अपने हैं’-य्ह स्वीकृति स्वयंमें होती है, मन-बुद्धिमें नहीं । कारण यह है कि मूलमें भगवान्का ही अंश होनेसे स्वयं भगवान्से अभिन्न है । भगवान्के सिवाय दूसरेके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही भूल है, मोह है, बन्धन है ।
जबतक मनुष्यको अपनेमें बल, योग्यता, विशेषता दीखती है, तबतक वह ‘अनन्यभाक्’ नहीं होता । अनन्यभाक् तभी होता है, जब एक भगवान् के सिवाय अन्य किसी का आश्रय नहीं रहता ।
व्याख्या—
जब मनुष्य सांसारिक दुःखोंसे घबरा जाता है और उन्हें मिटानेमें अपनी निर्बलताका अनुभव करता है, पर साथ-ही-साथ उसमें यह विश्वास रहता है कि सर्वसमर्थ भगवान्की कृपासे मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है और मैं सांसारिक दुःखोंसे छूट सकता हूँ, तब वह तत्काल भक्त हो जाता है ।
भक्त का पतन नहीं होता; क्योंकि उसमें अपने बल का आश्रय नहीं होता, प्रत्युत भगवान् के ही बल का आश्रय होता है । वह साधननिष्ठ न होकर भगवन्निष्ठ होता है । इसलिये एक बार भक्त होने के बाद फिर उसका पतन नहीं होता अर्थात् वह पुनः दुराचारी नहीं बनता ।
भगवान् अर्जुनको प्रतिज्ञा करनेके लिये कहते हैं; क्योंकि भक्तकी प्रतिज्ञा भगवान् भी टाल नहीं सकते । भक्ति भगवान्की कमजोरी है ।
ॐ तत्सत् !
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥ ३०॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥ ३१॥
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्त का पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।
व्याख्या—
ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धिकी प्रधानत रहती है, इसलिये उनमें पहले बुद्धिमें समता आती है-‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु’ (गीता २ । ५४-६८) । ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धि व्यवसित (एक निश्चय्वाली) होती है- ‘बुद्धया विशुद्धया युक्तः’ (गीता १८ । ५१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ (२ । ४१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः’ (२ । ४४)। बुद्धि व्यवसित होनेसे अहम्का सर्वथा नाश नहीं होता; क्योंकि अहम् बुद्धिसे परे है-‘भूमिरापो$नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं... (गीत ७ । ४) । अतः मुक्त होनेपर भी अहम्की सूक्ष्म गन्ध रह जाती है, जो बन्धनकारक तो नहीं होती, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाली होती है । परन्तु भक्तियोगमें स्वयं (भगवान्के अंश) की प्रधानता रहती है, इसलिये भक्त स्वयं व्यवसित होता है-‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ । स्वयं व्यवसित होनेसे अहम् सर्वथा नहीं रहता; क्योंकि स्वयं अहम्से परे है । मन-बुद्धिमें बैठी हुई बातकी विस्मृति हो सकती है, पर स्वयंमें बैठी हुई बातकी विस्मृतिकभी नहीं हो सकती । स्वयंमें जो बात होती है, वह अखण्ड रहती है । इसलिये ‘मैं भगवान्का ही हूँ और भगवान् ही मेरे अपने हैं’-य्ह स्वीकृति स्वयंमें होती है, मन-बुद्धिमें नहीं । कारण यह है कि मूलमें भगवान्का ही अंश होनेसे स्वयं भगवान्से अभिन्न है । भगवान्के सिवाय दूसरेके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही भूल है, मोह है, बन्धन है ।
जबतक मनुष्यको अपनेमें बल, योग्यता, विशेषता दीखती है, तबतक वह ‘अनन्यभाक्’ नहीं होता । अनन्यभाक् तभी होता है, जब एक भगवान् के सिवाय अन्य किसी का आश्रय नहीं रहता ।
व्याख्या—
जब मनुष्य सांसारिक दुःखोंसे घबरा जाता है और उन्हें मिटानेमें अपनी निर्बलताका अनुभव करता है, पर साथ-ही-साथ उसमें यह विश्वास रहता है कि सर्वसमर्थ भगवान्की कृपासे मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है और मैं सांसारिक दुःखोंसे छूट सकता हूँ, तब वह तत्काल भक्त हो जाता है ।
भक्त का पतन नहीं होता; क्योंकि उसमें अपने बल का आश्रय नहीं होता, प्रत्युत भगवान् के ही बल का आश्रय होता है । वह साधननिष्ठ न होकर भगवन्निष्ठ होता है । इसलिये एक बार भक्त होने के बाद फिर उसका पतन नहीं होता अर्थात् वह पुनः दुराचारी नहीं बनता ।
भगवान् अर्जुनको प्रतिज्ञा करनेके लिये कहते हैं; क्योंकि भक्तकी प्रतिज्ञा भगवान् भी टाल नहीं सकते । भक्ति भगवान्की कमजोरी है ।
ॐ तत्सत् !
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