॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ १९॥
बहुत जन्मों के अन्तिम जन्म में अर्थात् मनुष्य जन्म में सब कुछ परमात्मा ही हैं—इस प्रकार जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा * अत्यन्त दुर्लभ है ।
व्याख्या—
साधक पहले परमात्मा को दूर देखता है, फिर समीप देखता है, फिर अपने में देखता है, और फिर केवल परमात्माको ही देखता है । कर्मयोगी परमात्माको समीप देखता है, ज्ञानयोगी परमात्माको अपनेमें देखता है और भक्तियोगी सब जगह परमात्माको ही देखता है । ‘सब कुछ परमात्म ही हैं’-ऐसा अनुभव करना ही असली शरणागति है अर्थात् केवल शरण्य ही रह जाय, शरणागत कोई रहे ही नहीं !
‘वासुदेवः सर्वम्’-यह गीताका सर्वोत्तम सिद्धान्त है । हमारी दृष्टिमें ‘सर्वम्’ (संसार)-की सत्ता है, इसलिये भगवान्ने हमें समझानेके लिये ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है । वास्तवमें केवल वासुदेव-ही-वासुदेव है, ‘सर्वम्’ है ही नहीं ! कारणकि असत् होनेसे ‘सर्वम्’ की सत्ता विद्यमान ही नहीं है-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) ।
जैसे, खेत में पहले भी गेहूँ बोया गया था और अन्तमें भी गेहूँ ही निकलेगा, पर बीचमें हरी-हरी घास दीखनेपर भी वह ‘गेहूँकी खेती’ कहलाती है । उसे गाय खा जाय तो किसान कहता है कि गाय हमारा गेहूँ खा गयी, जबकि गायने एक दाना भी नहीं खाया । इसी प्रकार सृष्टिके पहले भी परमात्मा थे और अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे, पर बीचमें परमात्मा न दीखनेपर भी सब कुछ परमात्मा ही हैं । जैसे गेहूँसे उत्पन्न खेती भी गेहूँ ही है, ऐसे ही परमात्मासे उत्पन्न सृष्टि भी परमात्मा ही हैं । परमात्माने कहींसे सामान मँगवाकर सृष्टि नहीं बनायी, प्रत्युत वे खुद ही सृष्टिरूप बन गये । अतः सृष्टि भगवान्का प्रथम अवतार है-‘आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते’ (श्रीमद्भा० ३ । ६ । ८) ।
जैसे जिसके भीतर प्यास होती है, उसे ही जल दीखता है । प्यास न हो तो जल सामने रहते हुए भी दीखता नहीं । ऐसे ही जिसके भीतर परमात्मकी प्यास (लालसा) है, उसे परमात्मा दीखते हैं और जिसके भीतर संसारकी प्यास है, उसे संसार दीखता है । परमात्माकी प्यास हो तो संसार लुप्त हो जाता है और संसारकी प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं ।
तात्पर्य है कि संसार की प्यास होनेसे संसार न होते हुए भी मृगमरीचिकाकी तरह दीखने लग जाता है और परमात्माकी प्यास होनेसे परमात्मा न दीखनेपर भी दीखने लग जाते हैं । परमात्माकी प्यास जाग्रत होने पर भक्तको भूतकालका चिन्तन नहीम होता , भविषकी आशा नहिं रहती और वर्तमानमें उसे प्राप्त किये बिना चैन नहीं पड़ता ।
सब कुछ (समग्ररूपमें) एक भगवान् ही हैं-‘आसुदेवः सर्वम्’, सदसच्चाहम्’ (गीता ९ । १९) । एक भगवान्के सिवाय कुछ भी न होनेसे भगवान् अकेले हैं, उनके पास (उनसे भी भिन्न) कुछ भी नहीं है । भगवान्का अंश होनेसे जीवके पास भी भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है; अतः वह भी वास्तवमें अकेला है । जीव भगवान् के सिवाय भूलसे जिसको भी अपना मानता है, वह सब असत् है, त्याज्य है, मिलने और बिछुड़नेवाला है । तात्पर्य है कि भगवान् भी अकिंचन हैं और उनका अंश जीव भी ! इसलिये भगवान्ने रुक्मणीजीसे कहा है-‘निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः’ (श्रीमद्भा० १० । ६० । १४ ) ‘हम सदाके अकिंचन हैं और अकिंचन भक्तोंसे ही हम प्रेम करते हैं तथा वे हमीसे प्रेम करते हैं ।’ जब साधक संसारमें शरीरादि किसी भी वस्तु-व्यक्तिको अपना तथा अपने लिये नहीं मानता, प्रत्युत एकमात्र भगवान्को ही अपना तथा अपने लिये मानता है, तब वह अकिंचन होकर भगवान्का प्रेमी हो जाता है-‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’ (७ । १७), ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (७ । १८), ‘मयी ते तेषु चाप्यहम्’ (९ । २९) ।
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* गीतामें ‘महात्मा’ शब्द केवल भक्तके लिये ही आया है । इसी तरह ‘उदार’, ‘युक्ततम’, ‘सर्ववित्’ आदि शब्द भी भक्तके लिये ही आये हैं ।
ॐ तत्सत् !
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ १९॥
बहुत जन्मों के अन्तिम जन्म में अर्थात् मनुष्य जन्म में सब कुछ परमात्मा ही हैं—इस प्रकार जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा * अत्यन्त दुर्लभ है ।
व्याख्या—
साधक पहले परमात्मा को दूर देखता है, फिर समीप देखता है, फिर अपने में देखता है, और फिर केवल परमात्माको ही देखता है । कर्मयोगी परमात्माको समीप देखता है, ज्ञानयोगी परमात्माको अपनेमें देखता है और भक्तियोगी सब जगह परमात्माको ही देखता है । ‘सब कुछ परमात्म ही हैं’-ऐसा अनुभव करना ही असली शरणागति है अर्थात् केवल शरण्य ही रह जाय, शरणागत कोई रहे ही नहीं !
‘वासुदेवः सर्वम्’-यह गीताका सर्वोत्तम सिद्धान्त है । हमारी दृष्टिमें ‘सर्वम्’ (संसार)-की सत्ता है, इसलिये भगवान्ने हमें समझानेके लिये ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है । वास्तवमें केवल वासुदेव-ही-वासुदेव है, ‘सर्वम्’ है ही नहीं ! कारणकि असत् होनेसे ‘सर्वम्’ की सत्ता विद्यमान ही नहीं है-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) ।
जैसे, खेत में पहले भी गेहूँ बोया गया था और अन्तमें भी गेहूँ ही निकलेगा, पर बीचमें हरी-हरी घास दीखनेपर भी वह ‘गेहूँकी खेती’ कहलाती है । उसे गाय खा जाय तो किसान कहता है कि गाय हमारा गेहूँ खा गयी, जबकि गायने एक दाना भी नहीं खाया । इसी प्रकार सृष्टिके पहले भी परमात्मा थे और अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे, पर बीचमें परमात्मा न दीखनेपर भी सब कुछ परमात्मा ही हैं । जैसे गेहूँसे उत्पन्न खेती भी गेहूँ ही है, ऐसे ही परमात्मासे उत्पन्न सृष्टि भी परमात्मा ही हैं । परमात्माने कहींसे सामान मँगवाकर सृष्टि नहीं बनायी, प्रत्युत वे खुद ही सृष्टिरूप बन गये । अतः सृष्टि भगवान्का प्रथम अवतार है-‘आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते’ (श्रीमद्भा० ३ । ६ । ८) ।
जैसे जिसके भीतर प्यास होती है, उसे ही जल दीखता है । प्यास न हो तो जल सामने रहते हुए भी दीखता नहीं । ऐसे ही जिसके भीतर परमात्मकी प्यास (लालसा) है, उसे परमात्मा दीखते हैं और जिसके भीतर संसारकी प्यास है, उसे संसार दीखता है । परमात्माकी प्यास हो तो संसार लुप्त हो जाता है और संसारकी प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं ।
तात्पर्य है कि संसार की प्यास होनेसे संसार न होते हुए भी मृगमरीचिकाकी तरह दीखने लग जाता है और परमात्माकी प्यास होनेसे परमात्मा न दीखनेपर भी दीखने लग जाते हैं । परमात्माकी प्यास जाग्रत होने पर भक्तको भूतकालका चिन्तन नहीम होता , भविषकी आशा नहिं रहती और वर्तमानमें उसे प्राप्त किये बिना चैन नहीं पड़ता ।
सब कुछ (समग्ररूपमें) एक भगवान् ही हैं-‘आसुदेवः सर्वम्’, सदसच्चाहम्’ (गीता ९ । १९) । एक भगवान्के सिवाय कुछ भी न होनेसे भगवान् अकेले हैं, उनके पास (उनसे भी भिन्न) कुछ भी नहीं है । भगवान्का अंश होनेसे जीवके पास भी भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है; अतः वह भी वास्तवमें अकेला है । जीव भगवान् के सिवाय भूलसे जिसको भी अपना मानता है, वह सब असत् है, त्याज्य है, मिलने और बिछुड़नेवाला है । तात्पर्य है कि भगवान् भी अकिंचन हैं और उनका अंश जीव भी ! इसलिये भगवान्ने रुक्मणीजीसे कहा है-‘निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः’ (श्रीमद्भा० १० । ६० । १४ ) ‘हम सदाके अकिंचन हैं और अकिंचन भक्तोंसे ही हम प्रेम करते हैं तथा वे हमीसे प्रेम करते हैं ।’ जब साधक संसारमें शरीरादि किसी भी वस्तु-व्यक्तिको अपना तथा अपने लिये नहीं मानता, प्रत्युत एकमात्र भगवान्को ही अपना तथा अपने लिये मानता है, तब वह अकिंचन होकर भगवान्का प्रेमी हो जाता है-‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’ (७ । १७), ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (७ । १८), ‘मयी ते तेषु चाप्यहम्’ (९ । २९) ।
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* गीतामें ‘महात्मा’ शब्द केवल भक्तके लिये ही आया है । इसी तरह ‘उदार’, ‘युक्ततम’, ‘सर्ववित्’ आदि शब्द भी भक्तके लिये ही आये हैं ।
ॐ तत्सत् !
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