अव्यक्ताद्-व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥ १८॥
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥ १९॥
ब्रह्मा के दिन के आरम्भकाल में अव्यक्त (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-से सम्पूर्ण शरीर पैदा होते हैं और ब्रह्मा की रात के आरम्भकाल में उस अव्यक्त नाम वाले (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-में ही सम्पूर्ण शरीर लीन हो जाते हैं।
हे पार्थ ! वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के परवश हुआ ब्रह्मा के दिन के समय उत्पन्न होता है और ब्रह्माकी रात्रिके समय लीन होता है।
व्याख्या—
बदलनेवाले शरीर-संसार का विभाग अलग है और न बदलनेवाले आत्मा-परमात्मा का विभाग अलग है । शरीर-संसार तो बार-बार उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं, पर आत्मा-परमात्मा वे-के-वे ही रहते हैं । कितने ही प्रलय-महाप्रलय और सर्ग-महासर्ग क्यों न हो जाँय, जीवात्मा स्वयं वही-का-वही रहता है । इसलिये देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, अवस्था, परिस्थिति आदि के अभाव का अनुभव तो सब को होता है, पर स्वयं के अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता । परन्तु शरीर को मैं, मेरा तथा मेरे लिये मान लेने के कारण शरीर के परिवर्तन को जीवात्मा अपना परिवर्तन मान लेता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है ।
जैसे रेलगाड़ी पर चढ़ने से मनुष्य रेलगाड़ी के परवश हो जाता है, जहाँ रेलगाड़ी जायगी, वहाँ उसे जाना ही पड़ता है, ऐसे ही शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से मनुष्य प्रकृति के परवश हो जाता है और उसे जन्म-मरण के चक्र में जाना ही पड़ता है ।
ॐ तत्सत् !
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