॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥ २८॥
योगी (भक्त) इसको (इस अध्यायमें वर्णित विषयको) जानकर वेदों में, यज्ञों में,तपों में तथा दान में जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलों का अतिक्रमण कर जाता है और आदि-स्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें शुक्ल और कृष्ण-दोनों गतियों का उपसंहार करके अब भगवान् यहाँ पूरे अध्यायका उपसंहार करते हैं । वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान आदि जितने भी पुण्यकर्म हैं, उनका अधिक-से-अधिक फल ब्रह्मलोककी प्राप्ति होना है, जहाँसे पुनः लौटकर संसारमें आना पड़ता है, परन्तु भगवान्का आश्रय लेनेवाला भक्त उस ब्रह्मलोकका भी अतिक्रमण करके परमधामको प्राप्त हो जाता है, जहाँसे पुनः लौटकर संसारमें नहीं आना पड़ता ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्याय:॥ ८॥
वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥ २८॥
योगी (भक्त) इसको (इस अध्यायमें वर्णित विषयको) जानकर वेदों में, यज्ञों में,तपों में तथा दान में जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलों का अतिक्रमण कर जाता है और आदि-स्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें शुक्ल और कृष्ण-दोनों गतियों का उपसंहार करके अब भगवान् यहाँ पूरे अध्यायका उपसंहार करते हैं । वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान आदि जितने भी पुण्यकर्म हैं, उनका अधिक-से-अधिक फल ब्रह्मलोककी प्राप्ति होना है, जहाँसे पुनः लौटकर संसारमें आना पड़ता है, परन्तु भगवान्का आश्रय लेनेवाला भक्त उस ब्रह्मलोकका भी अतिक्रमण करके परमधामको प्राप्त हो जाता है, जहाँसे पुनः लौटकर संसारमें नहीं आना पड़ता ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्याय:॥ ८॥
No comments:
Post a Comment