Saturday, 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

  ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।३५।।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।३६।।

गायी जानेवाली श्रुतियोंमें बृहत्साम और वैदिक छन्दोंमें गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनोंमें मार्गशीर्ष और छः ऋतुओंमें वसन्त मैं हूँ।
छल करनेवालोंमें जूआ और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ। जीतनेवालोंकी विजय? निश्चय करनेवालोंका निश्चय और सात्त्विक मनुष्योंका सात्त्विक भाव मैं हूँ।

व्याख्या—

पूर्वपक्ष- भगवान्‌ने जूएको अपनी विभूति बताया है, फिर जूआ खेलनेमें क्या दोष है ? यदि दोष नहीं है तो शास्त्रोंने इसका निषेध क्यों किया है ?

उत्तरपक्ष- यदि किसी ग्रन्थके किसी अंशपर शंका उत्पन्न हो तो उस ग्रन्थका आदिसे अन्ततक अध्ययन करके उसमें वक्ताके उद्देश्य, लक्ष्य और आशयको समझनेसे उस शंकाकी निवृत्ति हो जाती है । यहाँ शास्त्रोंके विधि-निषेधका प्रसंग नहीं चल रहा है, प्रत्युत भगवान्‌की विभूतियोंका प्रसंग चल रहा है । ‘मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ’-अर्जुनके इस प्रश्नके अनुसार भगवान्‌ अपनी विभूतियोंके रूपमें अपने चिन्तनकी बात ही बता रहे हैं । भगवान्‌ने सिंहको तथा मृत्युको भी अपनी विभूति बताया है (१० । ३०,३४) । इसका अर्थ यह थोड़े ही है कि मनुष्य इनका सेवन करे !

ॐ तत्सत् !

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