॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ २२॥
हे पृथानन्दन अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है ।
व्याख्या—
ज्ञानमार्ग में तो ज्ञानी पुरुष संसार से छूट जाता है, मुक्त हो जाता है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । परन्तु भक्तिमार्ग में संसार से मुक्त होने के साथ-साथ भक्त को भगवान् की तथा उनके प्रेम की भी प्राप्ति हो जाती है । अतः कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं और भक्तियोग साध्य है ।
ॐ तत्सत् !
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ २२॥
हे पृथानन्दन अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है ।
व्याख्या—
ज्ञानमार्ग में तो ज्ञानी पुरुष संसार से छूट जाता है, मुक्त हो जाता है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । परन्तु भक्तिमार्ग में संसार से मुक्त होने के साथ-साथ भक्त को भगवान् की तथा उनके प्रेम की भी प्राप्ति हो जाती है । अतः कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं और भक्तियोग साध्य है ।
ॐ तत्सत् !
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