Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥ २८॥

इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या—

‘कर्म’ भी शुभ-अशुभ होते हैं और ‘फल’ भी । दूसरों के हित के लिये करना ‘शुभ कर्म’ है और अपने लिये करना ‘अशुभ कर्म’ है । अनुकूल परिस्थिति ‘शुभ फल’ है और प्रतिकूल परिस्थिति ‘अशुभ फल’ है । भगवान्‌ का भक्त शुभकर्मों को भगवान्‌ के अर्पण करता है, अशुभ कर्म करता नहीं और शुभ-अशुभ फल से अर्थात्‌ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिसे सुखी-दुःखी नहीं होता । उसके अनन्त जन्मोंके संचित शुभाशुभ कर्म भस्म हो जाते हैं; जैसे -घासके ढेरमें जलता हुआ टुकड़ा फेंकनेसे सब घास जल जाता है । भगवान्‌ के अर्पण करने से संसार का सम्बन्ध (गुणसंग) नहीं रहता, प्रत्युत केवल भगवान्‌ का सम्बन्ध रह जाता है, जो कि स्वतः पहले से ही है ।

ॐ तत्सत् !

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