॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥ १८॥
पहले कहे हुए सब-के-सब (चारों) ही भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है—ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह मुझसे अभिन्न है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है, ऐसे मुझमें ही दृढ़ स्थित है।
व्याख्या—
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु भक्तको उदार कहना वस्तवमें भगवान्की अपनी उदारता है ! उनको उदार कहनेका तात्पर्य है कि वे संसारसे विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो गये ।
तत्त्वज्ञानीकी भगवान्के साथ सधर्मता होती है-‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २), पर भक्तकी भगवान्के साथ आत्मीयता होती है-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ । साधर्म्यमें जीव और ब्रह्ममें भेद होता है । आत्मीयतामें भक्त और भगवान्में अभिन्नता होती है । अभेदमें जीव और ब्रह्म दोसे एक हो जाते हैं । अभिन्नतामेंभक्त और भगवान् प्रेम-लीलाके लिये एकसे दो हो जाते हैं । तत्त्वज्ञानी में तो सूक्ष्म अहम् रहता है, पर भक्तमें अहम् का सर्वथा नाश हो जाता है, इसलिये भगवान् कहते हैं-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
ॐ तत्सत् !
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥ १८॥
पहले कहे हुए सब-के-सब (चारों) ही भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है—ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह मुझसे अभिन्न है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है, ऐसे मुझमें ही दृढ़ स्थित है।
व्याख्या—
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु भक्तको उदार कहना वस्तवमें भगवान्की अपनी उदारता है ! उनको उदार कहनेका तात्पर्य है कि वे संसारसे विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो गये ।
तत्त्वज्ञानीकी भगवान्के साथ सधर्मता होती है-‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २), पर भक्तकी भगवान्के साथ आत्मीयता होती है-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ । साधर्म्यमें जीव और ब्रह्ममें भेद होता है । आत्मीयतामें भक्त और भगवान्में अभिन्नता होती है । अभेदमें जीव और ब्रह्म दोसे एक हो जाते हैं । अभिन्नतामेंभक्त और भगवान् प्रेम-लीलाके लिये एकसे दो हो जाते हैं । तत्त्वज्ञानी में तो सूक्ष्म अहम् रहता है, पर भक्तमें अहम् का सर्वथा नाश हो जाता है, इसलिये भगवान् कहते हैं-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
ॐ तत्सत् !
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