॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥ १९॥
हे अर्जुन! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।
व्याख्या—
जो देखने, सुनने, पढ़ने तथा कल्पना करनेमें आता है और जिन शरीर-इन्द्रियाँ-म्न-बुद्धि-अहम्के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, सोचा जाता है, वह सब-का-सब असत् (अपरा प्रकृति) है । परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता, सोचता, जानता, मानता है, वह सत् (परा प्रकृति) है । भगवान् कहते हैं कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ ।
जैसे अन्नकूटके प्रसादमें रसगुल्ले, गुलाबजामुन आदि भी होते हैं और मेथी, करेले आदि का साग भी होता है अर्थात् मीठा भी भगवान्का प्रसाद होता है और क्ड़वा भी । ऐसे ही अमृत भी भगवान् हैं और मृत्यु भी । सूर्यरूपसे जलको ग्रहण करना और फित उसे बरसा देना-ये दोनों विपरीत कार्य (ग्रहण और त्याग) भी भगवान् ही करते हैं ।
‘सद्सच्चाहम्’ (सत् और असत् भी मैं ही हूँ)- इसमें विवेक नहीं है, प्रत्युत विश्वास है । विश्वास विवेकसे भी तेज होता है कारण कि विवेक वहीं काम करता है, जहाँ सत् और असत्- दोनों का विचार होता है । जब असत् है ही नहीं तो फिर विवेक क्या करे ? विवेकमें तो सत्-असत् विभाग है, पर विश्वासमें विभाग है ही नहीं । विश्वासमें केवल सत्-ही-सत् अर्थात् भगवान्-ही-भगवान् हैं ।
ज्ञानमार्गमें सत्-असत्का विवेक मुख्य होनेसे इसमें ‘द्वैत’ है, पर भक्तिमार्गमें एक भगवान्का ही विश्वास मुख्य होनेसे इसमें ‘अद्वैत’ है । तात्पर्य है कि दो सत्ता न होनेसे वास्तविक अद्वैत भक्तिमें ही है ।
ज्ञानमार्गमें साधक असत्का निषेध करता है । निषेध करनेसे असत्की सत्ताका भाव बहुत समयतक बना रहता है । साधक असत्के निषेधपर जोर लगाता है, उतना ही असत्की सत्ताका भाव दृढ़ होता है । अतः असत्का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितना उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है । उपेक्षा करने की अपेक्षा भी ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’- यह भाव और भी बढ़िया है । अतः भक्त न असत् को हटाता है, न असत् की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्-असत् सब में भगवान् को ही देखता है ।
अपने सहित इस संसार में जो कुछ दीखता है, वह भगवान् का स्वरूप है और इसमें जो क्रिया दीख रही है, वह भगवान्की लीला है । भगवान् और उनकी लीलाके सिवाय कुछ नहीं है । कोई जन्म गया, कोई मर गया, किसीका विवाह हो गया, किस्की सन्तान हो गयी, कोई बीमार हो गया, कोई नीरोग हो गया, किसीका आदर हो गया, किसीका निरादर हो गया, किसीको नफा हो गया, किसीको घाटा लग गया, कोई धनवान् हो गया, कोई निर्धन हो गया- यह सब-का-सब भगवान्की लीला है । सर्ग-प्रलय भी उनकी लीला है और महा सर्ग-महाप्रलय भी उनकी लीला है । वे कभी सत्ययुगकी लीला करते हैं, कभी त्रेतायुगकी लीला करते हैं, कभी द्वापरयुगकी लीला करते हैं और कभी कलियुगकी लीला करते हैं । इस प्रकार भगवान् और उनकी लीलाको देख-देखकर साधकको आनन्दित रहना चाहिये ।
ॐ तत्सत् !
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥ १९॥
हे अर्जुन! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।
व्याख्या—
जो देखने, सुनने, पढ़ने तथा कल्पना करनेमें आता है और जिन शरीर-इन्द्रियाँ-म्न-बुद्धि-अहम्के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, सोचा जाता है, वह सब-का-सब असत् (अपरा प्रकृति) है । परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता, सोचता, जानता, मानता है, वह सत् (परा प्रकृति) है । भगवान् कहते हैं कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ ।
जैसे अन्नकूटके प्रसादमें रसगुल्ले, गुलाबजामुन आदि भी होते हैं और मेथी, करेले आदि का साग भी होता है अर्थात् मीठा भी भगवान्का प्रसाद होता है और क्ड़वा भी । ऐसे ही अमृत भी भगवान् हैं और मृत्यु भी । सूर्यरूपसे जलको ग्रहण करना और फित उसे बरसा देना-ये दोनों विपरीत कार्य (ग्रहण और त्याग) भी भगवान् ही करते हैं ।
‘सद्सच्चाहम्’ (सत् और असत् भी मैं ही हूँ)- इसमें विवेक नहीं है, प्रत्युत विश्वास है । विश्वास विवेकसे भी तेज होता है कारण कि विवेक वहीं काम करता है, जहाँ सत् और असत्- दोनों का विचार होता है । जब असत् है ही नहीं तो फिर विवेक क्या करे ? विवेकमें तो सत्-असत् विभाग है, पर विश्वासमें विभाग है ही नहीं । विश्वासमें केवल सत्-ही-सत् अर्थात् भगवान्-ही-भगवान् हैं ।
ज्ञानमार्गमें सत्-असत्का विवेक मुख्य होनेसे इसमें ‘द्वैत’ है, पर भक्तिमार्गमें एक भगवान्का ही विश्वास मुख्य होनेसे इसमें ‘अद्वैत’ है । तात्पर्य है कि दो सत्ता न होनेसे वास्तविक अद्वैत भक्तिमें ही है ।
ज्ञानमार्गमें साधक असत्का निषेध करता है । निषेध करनेसे असत्की सत्ताका भाव बहुत समयतक बना रहता है । साधक असत्के निषेधपर जोर लगाता है, उतना ही असत्की सत्ताका भाव दृढ़ होता है । अतः असत्का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितना उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है । उपेक्षा करने की अपेक्षा भी ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’- यह भाव और भी बढ़िया है । अतः भक्त न असत् को हटाता है, न असत् की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्-असत् सब में भगवान् को ही देखता है ।
अपने सहित इस संसार में जो कुछ दीखता है, वह भगवान् का स्वरूप है और इसमें जो क्रिया दीख रही है, वह भगवान्की लीला है । भगवान् और उनकी लीलाके सिवाय कुछ नहीं है । कोई जन्म गया, कोई मर गया, किसीका विवाह हो गया, किस्की सन्तान हो गयी, कोई बीमार हो गया, कोई नीरोग हो गया, किसीका आदर हो गया, किसीका निरादर हो गया, किसीको नफा हो गया, किसीको घाटा लग गया, कोई धनवान् हो गया, कोई निर्धन हो गया- यह सब-का-सब भगवान्की लीला है । सर्ग-प्रलय भी उनकी लीला है और महा सर्ग-महाप्रलय भी उनकी लीला है । वे कभी सत्ययुगकी लीला करते हैं, कभी त्रेतायुगकी लीला करते हैं, कभी द्वापरयुगकी लीला करते हैं और कभी कलियुगकी लीला करते हैं । इस प्रकार भगवान् और उनकी लीलाको देख-देखकर साधकको आनन्दित रहना चाहिये ।
ॐ तत्सत् !
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