॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥ ६॥
जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है,ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं—ऐसा तुम मान लो।
व्याख्या—
जैसे वायु आकाश से ही उत्पन्न होती है, आकाश में ही स्थित रहती है तथा आकाश में ही लीन हो जाती है अर्थात् आकाश को छोड़कर वायु की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी भगवान् से ही उत्पन्न होते हैं, भगवान् में ही स्थित रहते हैं तथा भगवान् में ही लीन हो जाते हैं अर्थात् भगवान् को छोड़कर प्राणियों की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-इस बात को साधक दृढ़ता से स्वीकार कर ले तो उसे ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’--इस वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जायगा ।
ॐ तत्सत् !
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥ ६॥
जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है,ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं—ऐसा तुम मान लो।
व्याख्या—
जैसे वायु आकाश से ही उत्पन्न होती है, आकाश में ही स्थित रहती है तथा आकाश में ही लीन हो जाती है अर्थात् आकाश को छोड़कर वायु की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी भगवान् से ही उत्पन्न होते हैं, भगवान् में ही स्थित रहते हैं तथा भगवान् में ही लीन हो जाते हैं अर्थात् भगवान् को छोड़कर प्राणियों की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-इस बात को साधक दृढ़ता से स्वीकार कर ले तो उसे ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’--इस वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जायगा ।
ॐ तत्सत् !
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