Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)



परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥ २०॥
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ २१॥

परन्तु उस अव्यक्त (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-से अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भावरूप जो अव्यक्त (ईश्वर) है, वह सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।
उसी को अव्यक्त और अक्षर—ऐसा कहा गया है तथा उसी को परम गति कहा गया है और जिस को प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर संसार में नहीं आते, वह मेरा परम धाम है।

व्याख्या—
ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर से भी श्रेष्ठ कारणशरीर (मूल प्रकृति) है और उससे भी श्रेष्ट परमात्मा हैं । परमात्मा के समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर उनसे श्रेष्ठ श्रेष्ट कोई हो ही कैसे सकता है (गीता ११ । ४३) । असंख्य ब्रह्मा जी उत्पन्न हो-होकर लीन हो गये, पर परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं ।
वास्तवमें परमात्मतत्त्व वर्णनातीत है । अव्यक्त, अक्षर, परमगति आदि नाम उस तत्त्व का संकेतमात्र करते है; क्योंकि वह अव्यक्त-व्यक्त, अक्षर-क्षर, गति-स्थिति आदिसे रहित निरपेक्ष तत्त्व है । उसे प्राप्त होनेपर जीव लौटकर संसारमें नहीं आता । कारण कि जीव उस परमात्मतत्त्वका सनातन अंश होनेसे उससे अलग नहीं है । संसारमें तो वह भूलसे अपनेको स्थित मानता है । वास्तवमें शरीर ही संसारमें स्थित है, स्वयं नहीं ।

ॐ तत्सत् !

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