Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥ ३३॥

जो पवित्र आचरण करनेवाले ब्राह्मण और ऋषि-स्वरूप क्षत्रिय भगवान्के भक्त हों, (वे परमगतिको प्राप्त हो जायँ) इसमें तो कहना ही क्या है! इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीरको प्राप्त करके तू मेरा भजन कर।

व्याख्या—

तीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक भगवान्‌ने भक्तिके तथा भगवत्प्राप्तिके सात अधिकारियोंके नाम लिये हैं- दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण और क्षत्रीय । इन सातोंसे बाहर कोई भी प्राणी नहीं है । तात्पर्य है कि मनुष्यका कैसा ही जन्म हो, कैसी ही जाति हो और पूर्वजन्मके तथा इस जन्मके कितने ही पाप हों, पर वे सब-के-सब भगवान्‌ और उनकी भक्तिके अधिकारी हैं । कारण कि जीवमात्र भगवान्‌का अंश होनेसे भगवान्‌की तरफ चलनेमें स्वतन्त्र है । भगवान्‍ की ओरसे किसीके लिये भी मनाही नहीं है ।

अनित्य और सुखरहित इस शरीरको पाकर अर्थात्‌ हम जीते रहें और सुख भोगते रहें-ऐसी कामनाको छोड़कर भगवान्‌का भजन करना चाहिये । कारण कि संसारमें सुख है ही नहीं, केवल सुखका भ्रम है । ऐसे ही जीनेका भी भ्रम है । हम जी नहीं रहे हैं, प्रत्युत प्रतिक्षण मर रहे हैं !

ॐ तत्सत् !

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