॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥ १६॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी—ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें भगवान्ने विमुख हुए मनुष्योंकी बात कहकर अब भगवान्के सम्मूख हुए भक्तोंकी बात कहते हैं । ऐसे भक्त चार प्रकारके होते हैं-अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और प्रेमी । जबतक संसारका किंचित् सम्बन्ध रहता है, तबतक अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु-ये तीन भेद रहते हैं । परन्तु संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर मनुष्य ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है ।
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु-तीनोंमें भगवान्की मुख्यता तथा सम्मुखता रहती है । अतः अर्थार्थी भगवान्से ही अपनी धन्स्की इच्छा पूरी करन चाहता है । आर्त भगवान्से ही अपना दुःख मिटाना चाहता है । जिज्ञासु भगवान्से ही अपनी जिज्ञासा शान्त करान चाहता है । जब भक्त एक भगवान्के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता, तब वह ज्ञानी अर्थात्६ प्रेमी भक्त होता है ।
पूर्वपक्ष-ज्ञानीको प्रेमी भक्त कैसे मान लिय गया ? येदि उसे तत्त्वज्ञनी मान लें तो क्या आपत्ति है ?
उत्तरपक्ष-कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे ‘ज्ञानी’ को प्रेमी भक्त मानना ही अधिक उपयुक्त दीखता है; जैसे-
(१) भगवान्ने ‘चतुर्विधा भजन्ते माम्’ कहकर ‘ज्ञानी’ को चार प्रकारके भक्तोंके अन्तर्गत लिया है ।
(२) भगवान्ने अगले श्लोकमें ज्ञानीको अनन्य-भक्तिवाला कहा है-‘एकभक्तिर्विशिष्यते’ और अपनेको उसका अत्यन्त प्रिय बताय है-‘प्रियो हि ज्ञानिनो$त्यर्थम्’ ।
(३) भगवान्ने ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले भक्तको ही वास्तविक ज्ञानी बताया है (७ । १९) ।
पूर्वपक्ष- परन्तु भगवान्ने ‘भक्त’ शब्द न देकर ‘ज्ञानी’ शब्द दिया ही क्यों ?
उत्तरपक्ष- कोई यह न समझ ले कि भक्तमें ज्ञानकी कमी या अभाव रहता है, इसलिये ‘ज्ञानी’ शब्द देकर भगवान्ने यह बताया है कि मेरे भक्तमें किसी प्रकारकी कोई कमी नहीं रहती । तत्त्वज्ञानीको तो ब्रह्मका ज्ञान होता है, पर भक्तको विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् समग्रका ज्ञान हो जाता है (गीता ७ । २९-३०) ।
ॐ तत्सत् !
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥ १६॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी—ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें भगवान्ने विमुख हुए मनुष्योंकी बात कहकर अब भगवान्के सम्मूख हुए भक्तोंकी बात कहते हैं । ऐसे भक्त चार प्रकारके होते हैं-अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और प्रेमी । जबतक संसारका किंचित् सम्बन्ध रहता है, तबतक अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु-ये तीन भेद रहते हैं । परन्तु संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर मनुष्य ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है ।
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु-तीनोंमें भगवान्की मुख्यता तथा सम्मुखता रहती है । अतः अर्थार्थी भगवान्से ही अपनी धन्स्की इच्छा पूरी करन चाहता है । आर्त भगवान्से ही अपना दुःख मिटाना चाहता है । जिज्ञासु भगवान्से ही अपनी जिज्ञासा शान्त करान चाहता है । जब भक्त एक भगवान्के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता, तब वह ज्ञानी अर्थात्६ प्रेमी भक्त होता है ।
पूर्वपक्ष-ज्ञानीको प्रेमी भक्त कैसे मान लिय गया ? येदि उसे तत्त्वज्ञनी मान लें तो क्या आपत्ति है ?
उत्तरपक्ष-कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे ‘ज्ञानी’ को प्रेमी भक्त मानना ही अधिक उपयुक्त दीखता है; जैसे-
(१) भगवान्ने ‘चतुर्विधा भजन्ते माम्’ कहकर ‘ज्ञानी’ को चार प्रकारके भक्तोंके अन्तर्गत लिया है ।
(२) भगवान्ने अगले श्लोकमें ज्ञानीको अनन्य-भक्तिवाला कहा है-‘एकभक्तिर्विशिष्यते’ और अपनेको उसका अत्यन्त प्रिय बताय है-‘प्रियो हि ज्ञानिनो$त्यर्थम्’ ।
(३) भगवान्ने ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले भक्तको ही वास्तविक ज्ञानी बताया है (७ । १९) ।
पूर्वपक्ष- परन्तु भगवान्ने ‘भक्त’ शब्द न देकर ‘ज्ञानी’ शब्द दिया ही क्यों ?
उत्तरपक्ष- कोई यह न समझ ले कि भक्तमें ज्ञानकी कमी या अभाव रहता है, इसलिये ‘ज्ञानी’ शब्द देकर भगवान्ने यह बताया है कि मेरे भक्तमें किसी प्रकारकी कोई कमी नहीं रहती । तत्त्वज्ञानीको तो ब्रह्मका ज्ञान होता है, पर भक्तको विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् समग्रका ज्ञान हो जाता है (गीता ७ । २९-३०) ।
ॐ तत्सत् !
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