Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥ १२॥
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥ १३॥

जो आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिका ही आश्रय लेते हैं, ऐसे अविवेकी मनुष्योंकी सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभकर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् उनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) सत्-फल देनेवाले नहीं होते।
परन्तु हे पृथानन्दन! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।

व्याख्या—

जो मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करनेमें लगे रहते हैं, दूसरोंके दुःखकी परवाह नहीं करते, वे ‘आसुरी’ स्वभाववाले होते हैं । जो स्वर्थसिद्धिमें बाधा लगनेपर क्रोधवश दूसरोंक नाश कर देते हैं, वे ‘राक्षसी’ स्वभाववाले होते हैं । जो बिना किसी कारणके दूसरोंको कष्ट पहुँचाते हैं, वे ‘मोहिनी’ स्वभाववाले होते हैं । आसुरी, राक्षसी और मोहिनी- तीनों ही स्वभाववाले मनुष्य आसुरी सम्पत्तिके अन्तर्गत आ जाते हैं, जो चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंकी प्राप्ति करानेवाली है ।

व्याख्या—

जो जिसके महत्त्वको जितना अधिक जानता है, वह उतना ही उसमें लग जाता है । जिन्होंने भगवान्‌को ही सर्वोपरि मान लिया है, वे दैवी स्वभाववाले महात्मा पुरुष भगवान्‌में ही लग जाते हैं । भोग तथा संग्रहकी तरफ उनकी वृत्ति कभी जाती ही नहीं ।

ॐ तत्सत् !

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