Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ २२॥

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं,मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌के अनन्यभक्त न तो पूर्वश्लोकमें वर्णित इन्द्रको मानते हैं और न अगले श्लोकमें वर्णित अन्य देवताओंको मानते हैं । इन्द्रादिकी उपासना करनेवालोंको नाशवान्‌ फल मिलता है, पर भगवान्‍६की उपासना करनेवालोंको अविनाशी फल मिलता है । देवताओंक उपासक तो नौकरकी तरह है और भगवान्‌क उपासक घरके सदस्यकी तरह है । नौकर काम करता है तो उसे कामके अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घरका सदस्य काम करे अथवा न करे, सब कुछ उसी का होता है । बालक क्या काम करता है ?

भगवान्‌ भक्तको उसके लिये आवश्यक साधन-सामग्री प्राप्त कराते हैं और प्राप्त सामग्रीकी रक्षा करते हैं- यही भगवान्‌का योगक्षेम वहन करना है । यद्यपि भगवान्‍६ सभी साधकोंक योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अपने अनन्यभक्तोंका योगक्षेम वे विशेषरूपसे वहन करते हैं; जैसे-प्यारे बच्चेका पालन माँ स्वयं करती है, नौकरोंसे नहीं करवाती ।

ॐ तत्सत् !

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