Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥ १३॥
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ १४॥

(किन्तु) इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत् (प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत और अविनाशी मुझे नहीं जानता।
क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस मायाको तर जाते हैं।

व्याख्या—

जो मनुष्य भगवान्‌ को न देखकर गुणों को देखते हैं अर्थात्‌ गुणों की स्वतन्त्र सत्ता मानते है, वे गुणों से मोहित हो जाते हैं । गुणों से मोहित मनुष्य गुणातीत परमात्मा को नहीं जान सकते ।

यद्यपि परमात्मा का अंश होने से जीवात्मा भी गुणातीत है, तथापि गुणों को सत्ता और महत्ता देने से वह भी गुणमय जगत्‌ बन जाता है । इसी कारण इस श्लोकमें जीवात्मा को ‘जगत’ कहा गया है । जगत्‌ बना हुआ जीवात्मा शरीर-संसार को ही मैं, मेरा और मेरे लिये मान लेता है

जो मनुष्य भगवान्‌ की गुणमयी माया (तीनों गुणों)- की स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता मानते हैं, उनके लिये इस माया से पार पाना बहुत ही कठिन है । यह गुणमयी माया है तो भगवान्‌ की-‘मम माया’, पर जीव इसे अपनी और अपने लिये मानकर बँध जाता है । इस माया से पार पाने का सुगम उपाय है--शरणागति अर्थात्‌ किसी भी वस्तु को अपनी और अपने लिये न मानकर भगवान्‌ की और भगवान्‌ के लिये ही मान लेना ।

ॐ तत्सत् !

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