Saturday, 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।

हे अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है? वह बीज मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है अर्थात् चरअचर सब कुछ मैं ही हूँ।

व्याख्या—

संसारमें जो कुछ भी विशेषता दीखती है, उसको संसारकी माननेसे मनुष्य उसमें फँस जाता है, जिससे उसक पतन हो जाता है । इसलिये भगवान्‌ यहाँ बहुत ही सरल साधन बताते हैं कि तुम्हारा मन जहाँ-कहीँ और जिस-किसी विशेषताको देखकर आकृष्ट होता हो, वहाँ उस विशेषताको तुम मेरी ही समझो कि यह विशेषता भगवान्‌की है और भगवान्‌से ही आयी है । यह विशेषता इस परिवर्तनशील, जड़, नाशवान्‌ संसारकी नहीं है । ऐसा समझनेसे तुम्हार आकर्षण उस वस्तु-व्यक्तिमें न होकर मेरेमें ही होगा, जिससे तुम्हारा मुझमें प्रेम हो जायगा ।

चौरासी लाख योनियाँ तथा उनके सिवाय देवता, पितर, गन्धर्व, भूत, प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, पूतना, बालग्रह आदि जितनी भी योनियाँ हैं, उन सबके मूल कारण भगवान्‌ हैं । तात्पर्य है कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त जीव हैं, पर उन सबका बीज एक ही है । लौकिक बीजसे एक ही प्रकारकी खेती पैदा होती है; जैसे-गेहूँके बीजसे गेहूँ ही पैदा होता है, अन्य अनाज नहीं । सबके बीज अलग-अलग होये हैं । परन्तु भगवान्‌-रूपी बीज इतना विलक्षण है कि उस एक ही बीजसे अनन्त ब्रह्माण्डके अनन्त जीव पैदा हो जाते हैं । सब प्रकारके जीव पैदा होनेपर भी उसमें कभी कोई विकृति नहीं आती, वह ज्यों-का-त्यों रहता है; क्योंकि वह बीज अव्यय और सनातन है (गीता ७ । १०, ९ । १८) ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment