॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥ ११॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानोंमें काम और रागसे रहित बल मैं हूँ और प्राणियोंमें धर्मसे अविरुद्ध (धर्मयुक्त) काम मैं हूँ।
व्याख्या—
सात्त्विक बल और बलवान्, धर्मयुक्त काम और प्राणी-ये-सब-के-सब एक भगवान् ही हैं ।
पूर्वपक्ष-तामसी बल और धर्मविरुद्ध काम क्या भगवान् नहीं हैं ?
उत्तरपक्ष-भगवान् होते हुए भी ये त्याज्य हैं, ग्राह्य नहीं । कारण कि तामसी बल और धर्मविरुद्ध कामके परिणामस्वरूप दुःख, पीड़ा, सन्ताप, नरक आदिके रूपमें भगवान् मिलते हैं, जो किसीके भी अभीष्ट नहीं हैं ।
ॐ तत्सत् !
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥ ११॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानोंमें काम और रागसे रहित बल मैं हूँ और प्राणियोंमें धर्मसे अविरुद्ध (धर्मयुक्त) काम मैं हूँ।
व्याख्या—
सात्त्विक बल और बलवान्, धर्मयुक्त काम और प्राणी-ये-सब-के-सब एक भगवान् ही हैं ।
पूर्वपक्ष-तामसी बल और धर्मविरुद्ध काम क्या भगवान् नहीं हैं ?
उत्तरपक्ष-भगवान् होते हुए भी ये त्याज्य हैं, ग्राह्य नहीं । कारण कि तामसी बल और धर्मविरुद्ध कामके परिणामस्वरूप दुःख, पीड़ा, सन्ताप, नरक आदिके रूपमें भगवान् मिलते हैं, जो किसीके भी अभीष्ट नहीं हैं ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment