॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरूध्य च ।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरूध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राण-मास्थितो योगधारणाम् ॥१२॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्रा व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥१३॥
(इन्द्रियों के) सम्पूर्ण द्वारों को रोककर मन का हृदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योग धारणा में सम्यक प्रकार से स्थित हुआ जो साधक ‘ऊँ’ इस एक अक्षर ब्रह्म का (मानसिक) उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।
ॐ तत्सत् !
ॐ तत्सत् !
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