॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।४।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।५।।
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, उत्पत्ति , विनाश , भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलगअलग (बीस) भाव मुझसे ही होते हैं।
व्याख्या—
ज्ञानकी दृष्टिसे तो सभी भाव प्रकृतिसे होते हैं, पर भक्तिकी दृष्टिसे भी सभी भाव भगवान्से तथा भगवत्स्वरूप होते हैं । अगर इन भावोंको जीव का मानें तो जीव भी भगवान्की ही परा प्रकृति होनेसे भगवान्से अभिन्न है । अतः ये भाव भगवान के ही हुए। भगवान् में ये भाव निरन्तर रहते हैं पर जीवमें अपरा प्रकृतिके संगसे आते-जाते रहते हैं । भगवान्से उत्पन्न होनेके कारण सभी भाव भगवत्स्वरूप ही हैं ।
जैसे हाथ एक ही होता है, पर उसमें अँगुलियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, ऐसे ही भगवान् एक ही हैं, पर उनसे प्रकट होनेवाले भाव भिन्न-भिन्न प्रकारके होते हैं ।
ॐ तत्सत् !
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।४।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।५।।
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, उत्पत्ति , विनाश , भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलगअलग (बीस) भाव मुझसे ही होते हैं।
व्याख्या—
ज्ञानकी दृष्टिसे तो सभी भाव प्रकृतिसे होते हैं, पर भक्तिकी दृष्टिसे भी सभी भाव भगवान्से तथा भगवत्स्वरूप होते हैं । अगर इन भावोंको जीव का मानें तो जीव भी भगवान्की ही परा प्रकृति होनेसे भगवान्से अभिन्न है । अतः ये भाव भगवान के ही हुए। भगवान् में ये भाव निरन्तर रहते हैं पर जीवमें अपरा प्रकृतिके संगसे आते-जाते रहते हैं । भगवान्से उत्पन्न होनेके कारण सभी भाव भगवत्स्वरूप ही हैं ।
जैसे हाथ एक ही होता है, पर उसमें अँगुलियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, ऐसे ही भगवान् एक ही हैं, पर उनसे प्रकट होनेवाले भाव भिन्न-भिन्न प्रकारके होते हैं ।
ॐ तत्सत् !
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