Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)


ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥ १२॥

(और तो क्या हूँ—) जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं—ऐसा उनको समझो। परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं।

व्याख्या—

शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो सात्त्विक, राजस तथा तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान्‌ ही हैं । ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं’-ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि साधककी दृष्टि सात्त्विक, राजस तथा तामस भावों की ओर न जाकर भगवान्‌की ओर ही जानी चाहिये । तदि उसकी दृष्टि भावों (गुणों)-की ओर जायेगी तो वह उनमें उलझकर जन्म-मरण्में चला जायगा (गीता १३ । २१) ।

सम्पूर्ण सात्त्विक, राज और तामस भाव भगवत्स्वरूप हैं- यह सिद्ध पुरुषोंकी दृष्टि है, और भगवान्‌ उनमें और वे भगवान्‌में नहीं हैं-यह साधकोंकी दृष्टि है ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment