Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥ २६॥

हे अर्जुन! जो प्राणी भूतकालमें हो चुके हैं तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता हूँ; परन्तु मुझे (भक्तके सिवाय) कोई भी प्राणी नहीं जानता।

व्याख्या—

भगवान्‌की दृष्टिमें भूत-भविष्य-वर्तमान-कालका भेद नहीं है । कालकी सत्ता जीवकी दृष्टिमें है । इसलिये हमें समझानेके लिये भगवान्‌ तीनों कालोंकी बात कहते हैं । तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमानके सभी जीव निरन्तर भगवान्‌की दृष्टिमें रहते हैं ।

पूर्वपक्ष- ‘जब भगवान्‌ सब जीवोंको जानते हैं’ तो फिर जिसे बद्ध जानते हैं, वह सदा बद्ध ही रहेगा, मुक्त कैसे होगा ?

उत्तरपक्ष- यह शंका संसारकी सत्ताको लेकर हमारी दृष्टिमें है । वासतवमें भगवान्‌ तथा उनके भक्त-दोनोंकी दृष्टिमें भगवान्‌के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं । बन्धन और मोक्ष जीवकी दृष्टिमें है । तत्त्वसे न बन्धन है, न मोक्ष, प्रत्युत केवल परमात्मा ही हैं-‘वासुदेवः सर्वम्‌’। अपना उद्धार करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है (गीता ६ । ५) ।

ॐ तत्सत् !

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