॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।
जो जो ऐश्वर्ययुक्त शोभायुक्त और बलयुक्त वस्तु है, उस-उस को तुम मेरे ही तेज (योग) के अंश से उत्पन्न हुई समझो ।
व्याख्या—
संसारकी सत्ता, महत्ता और सम्बन्ध ही मनुष्यको बाँधनेवाल है । इसलिये पहले कही गयी विभूतियोंके सिवाय भी साधकको स्वतः जिस-जिसमें व्यक्तिगत आकर्षण दीखता हो, वहाँ-वहाँ वह भगवान्की ही विशेषता देखे । इससे वहाँ उसकी भोगबुद्धि न होकर भगवद्बुद्धि हो जायगी तो उसके अन्तःकरणमें भगवान्की सत्त, महत्ता और उनसे सम्बन्ध हो जायगा ।
मनुष्यमें जो भी विशेषता आती है, वह सब भगवान्से ही आती है । अगर भगवान्में विशेषता न होती तो वह मनुष्य्में कैसे आती ? जो वस्तु अंशीमें नहीं है, वह अंशमें कैसे आ सकती है ? जो विशेषता बीजमें नहीं है, वह वृक्षमें कैसे आयेगी ? उन्हीं भगवान्की कवित्व-शक्ति कविमें आती है, उन्हींकी वक्तृत्व-शक्ति वक्तामें आती है; उन्हींकी लेखन-शक्ति लेखकमें आती है, उन्हींकी दातृत्व-शक्ति दातामें आती है । जिनसे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उनकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञन मेरा है, प्रेम मेरा है । यह तो देनेवाले भगवान्की विशेषता है कि सब कुछ देकर भी वे अपनेको प्रकट नहीं करते, जिससे लेनेवालेको वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है । मनुष्यसे यह बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो अपना मान लेता है, पर जहाँसे वह मिली है, उसको अपना नहीं मानता !
परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियोँ, कलाओं, विद्याओं आदिके विलक्षण भण्डार हैं । शक्ति जड़ प्रकृतिमें नहीं रह सकती, प्रत्युत चिन्मय परमात्मतत्त्वमें ही रह सकती है । जिस ज्ञानसे क्रिया हो रही है, वह ज्ञान जड़में कैसे रह सकता है ?अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियाँ प्रकृतिमें ही हैं, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियोंके प्राकट्य और उपयोग (सृष्टि-रचना) आदि करनेकी योग्यता प्रकृतिमें नहीं है । जैसे, कम्प्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक चमत्कारिक कार्य करता है, परन्तु चेतन (मनुष्य)-के द्वारा निर्मित, शिक्षित तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता । कम्प्यूटर स्वतःसिद्ध नहीं है, प्रत्युत कृत्रिम (बनाया हुआ) है; परन्तु परमात्मा स्वतःसिद्ध हैं ।
ॐ तत्सत् !
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।
जो जो ऐश्वर्ययुक्त शोभायुक्त और बलयुक्त वस्तु है, उस-उस को तुम मेरे ही तेज (योग) के अंश से उत्पन्न हुई समझो ।
व्याख्या—
संसारकी सत्ता, महत्ता और सम्बन्ध ही मनुष्यको बाँधनेवाल है । इसलिये पहले कही गयी विभूतियोंके सिवाय भी साधकको स्वतः जिस-जिसमें व्यक्तिगत आकर्षण दीखता हो, वहाँ-वहाँ वह भगवान्की ही विशेषता देखे । इससे वहाँ उसकी भोगबुद्धि न होकर भगवद्बुद्धि हो जायगी तो उसके अन्तःकरणमें भगवान्की सत्त, महत्ता और उनसे सम्बन्ध हो जायगा ।
मनुष्यमें जो भी विशेषता आती है, वह सब भगवान्से ही आती है । अगर भगवान्में विशेषता न होती तो वह मनुष्य्में कैसे आती ? जो वस्तु अंशीमें नहीं है, वह अंशमें कैसे आ सकती है ? जो विशेषता बीजमें नहीं है, वह वृक्षमें कैसे आयेगी ? उन्हीं भगवान्की कवित्व-शक्ति कविमें आती है, उन्हींकी वक्तृत्व-शक्ति वक्तामें आती है; उन्हींकी लेखन-शक्ति लेखकमें आती है, उन्हींकी दातृत्व-शक्ति दातामें आती है । जिनसे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उनकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञन मेरा है, प्रेम मेरा है । यह तो देनेवाले भगवान्की विशेषता है कि सब कुछ देकर भी वे अपनेको प्रकट नहीं करते, जिससे लेनेवालेको वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है । मनुष्यसे यह बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो अपना मान लेता है, पर जहाँसे वह मिली है, उसको अपना नहीं मानता !
परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियोँ, कलाओं, विद्याओं आदिके विलक्षण भण्डार हैं । शक्ति जड़ प्रकृतिमें नहीं रह सकती, प्रत्युत चिन्मय परमात्मतत्त्वमें ही रह सकती है । जिस ज्ञानसे क्रिया हो रही है, वह ज्ञान जड़में कैसे रह सकता है ?अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियाँ प्रकृतिमें ही हैं, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियोंके प्राकट्य और उपयोग (सृष्टि-रचना) आदि करनेकी योग्यता प्रकृतिमें नहीं है । जैसे, कम्प्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक चमत्कारिक कार्य करता है, परन्तु चेतन (मनुष्य)-के द्वारा निर्मित, शिक्षित तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता । कम्प्यूटर स्वतःसिद्ध नहीं है, प्रत्युत कृत्रिम (बनाया हुआ) है; परन्तु परमात्मा स्वतःसिद्ध हैं ।
ॐ तत्सत् !
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