Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ ४॥

हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत हैं,पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देहमें (अन्तर्यामी-रूपसे) मैं ही अधियज्ञ हूँ।

व्याख्या—

जैसे एक ही जल-तत्त्व परमाणु, भाप, बादल, वर्षाकी क्रिया, बूँदें और ओले (बर्फ)-के रूपसे भिन्न-भिन्न दीखते हुए भी वास्तवमें एक ही है, इसी तरह एक ही परमात्मतत्त्व ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके रूपसे भिन्न-भिन्न दीखते हुए भी वास्तव में एक ही हैं । परमाणुरूप से जल ‘ब्रह्म’ है, भापरूपसे जल ‘अधियज्ञ’ है, बादलरूप से जल ‘अधिदैव’ है, बूँदेंरूप से जल ‘अध्यात्म’ है, वर्षा की क्रिया ‘कर्म’ है और बर्फरूप से जल ‘अधिभूत’ है । परमात्मा के इसी समग्ररूप के लिये गीतामें आया है-‘वासुदेवः सर्वम्‌’ ( ७ । १९ ), ‘सद्सच्चाहम्‌’ ( ९ । १९ ), ‘सदसत्तत्परं‌ यत्‌’ ( ११ । ३७ ) ।

ॐ तत्सत् !

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