॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥ ३४॥
तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार अपने-आप को मेरे साथ लगाकर मेरे परायण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा।
व्याख्या—
इस श्लोकमें अहंता-परिवर्तन की बात मुख्य है । भक्त ‘मैं केवल भगवान्का ही हूँ’- इस प्रकार अपनी अहंताको बदलता है और स्वयं का सम्बन्ध भगवान् से जोड़ता है । इसलिये उसे संसार के सम्बन्ध का त्याग करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वह स्वतः छूट जाता है । कारण कि वर्ण, आश्रम, जाति, योग्यता, अधिकार, कर्म, गुण आदि सब आगन्तुक हैं, पर स्वयं के साथ भगवान् का सम्बन्ध आगन्तुक नहीं है, प्रत्युत अनादि, नित्य और स्वतःसिद्ध है ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम
नवमोऽध्याय:॥ ९॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥ ३४॥
तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार अपने-आप को मेरे साथ लगाकर मेरे परायण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा।
व्याख्या—
इस श्लोकमें अहंता-परिवर्तन की बात मुख्य है । भक्त ‘मैं केवल भगवान्का ही हूँ’- इस प्रकार अपनी अहंताको बदलता है और स्वयं का सम्बन्ध भगवान् से जोड़ता है । इसलिये उसे संसार के सम्बन्ध का त्याग करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वह स्वतः छूट जाता है । कारण कि वर्ण, आश्रम, जाति, योग्यता, अधिकार, कर्म, गुण आदि सब आगन्तुक हैं, पर स्वयं के साथ भगवान् का सम्बन्ध आगन्तुक नहीं है, प्रत्युत अनादि, नित्य और स्वतःसिद्ध है ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम
नवमोऽध्याय:॥ ९॥
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