Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥ १६॥
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥ १७॥
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥ १८॥

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ । जाननेयोग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ । इस सम्पूर्ण जगत् का निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान,निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ ।

व्याख्या—

उपर्युक्त श्लोकोंको देखते हुए साधक यह बात दृढ़तासे स्वीकार कर ले कि कार्य-कारणरूपसे स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान्‌ ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

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