Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

 अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥८॥ 
कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ॥९॥ 

हे पृथानन्दन! अभ्यास योग से युक्त और अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़ने वाला मनुष्य) उसी को प्राप्त हो जाता है। 
जो सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करने वाला सूक्ष्म से अत्यन्त सूक्ष्म, सब का धारण-पोषण करने वाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश-स्वरूप अर्थात ज्ञानस्वरूप- ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है।

ॐ तत्सत् ! 

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