॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥ २६॥
जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।
व्याख्या—
देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है; परन्तु भगवान् की उपासना में कोई नियम नहीं है । भगवान् की उपासना में प्रेम की, अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं । भगवान् भावग्राही हैं, क्रियाग्राही नहीं ।
जैसे भोला बालक जो कुछ हाथ में आये, उसको मुँह में डाल लेता है, ऐसे ही भोले भक्त भगवान् को जो भी अर्पण करते हैं, उसे भगवान् भी भोले बनकर खा लेते हैं । ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४ । ११); जैसे- विदुरानीने केवल केले का छिलका दिया तो भगवान् ने उसे ही खा लिया !
ॐ तत्सत् !
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥ २६॥
जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।
व्याख्या—
देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है; परन्तु भगवान् की उपासना में कोई नियम नहीं है । भगवान् की उपासना में प्रेम की, अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं । भगवान् भावग्राही हैं, क्रियाग्राही नहीं ।
जैसे भोला बालक जो कुछ हाथ में आये, उसको मुँह में डाल लेता है, ऐसे ही भोले भक्त भगवान् को जो भी अर्पण करते हैं, उसे भगवान् भी भोले बनकर खा लेते हैं । ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४ । ११); जैसे- विदुरानीने केवल केले का छिलका दिया तो भगवान् ने उसे ही खा लिया !
ॐ तत्सत् !
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