॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥ ८॥
हे कुन्तीनन्दन! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ,सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार), आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषत्व मैं हूँ।
व्याख्या—
सृष्टिकी रचनामें भगवान् ही कर्ता होते हैं, भगवान् ही कारण होते हैं और भगवान् ही कार्य होते हैं । इस दृष्टिसे रस-तन्मात्रा और जल, प्रभा और चन्द्र-सूर्य, ओंकार और वेद, शब्द-तन्मात्रा और आकाश, पुरुषत्व और मनुष्य-ये सब-के-सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं ।
ॐ तत्सत् !
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥ ८॥
हे कुन्तीनन्दन! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ,सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार), आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषत्व मैं हूँ।
व्याख्या—
सृष्टिकी रचनामें भगवान् ही कर्ता होते हैं, भगवान् ही कारण होते हैं और भगवान् ही कार्य होते हैं । इस दृष्टिसे रस-तन्मात्रा और जल, प्रभा और चन्द्र-सूर्य, ओंकार और वेद, शब्द-तन्मात्रा और आकाश, पुरुषत्व और मनुष्य-ये सब-के-सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं ।
ॐ तत्सत् !
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