॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥ १५॥
दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेदभावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे भी कई साधक (अपनेको) पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्-रूप की अर्थात् संसारको मेरा विराट्-रूप मानकर सेव्य-सेवक भावसे मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।
व्याख्या—
साधकोंकी रुचि, योग्यता और श्रद्धा-विश्वास अलग-अलग होनेके कारण उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं । अलग-अलग साधनोंसे वे जिसकी भी उपासना करते हैं, वह भगवान्के समग्ररूपकी ही उपासना होती है । आगे सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक इसी समग्ररूपका वर्णन हुआ है ।
ॐ तत्सत् !
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥ १५॥
दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेदभावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे भी कई साधक (अपनेको) पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्-रूप की अर्थात् संसारको मेरा विराट्-रूप मानकर सेव्य-सेवक भावसे मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।
व्याख्या—
साधकोंकी रुचि, योग्यता और श्रद्धा-विश्वास अलग-अलग होनेके कारण उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं । अलग-अलग साधनोंसे वे जिसकी भी उपासना करते हैं, वह भगवान्के समग्ररूपकी ही उपासना होती है । आगे सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक इसी समग्ररूपका वर्णन हुआ है ।
ॐ तत्सत् !
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