॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।९।।
मुझ में चित्तवाले, मुझ में प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन आपस में (मेरे गुण, प्रभाव आदिको) जनाते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्यनिरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें प्रेम करते हैं।
व्याख्या—
भक्तोंका चित्त भगवान्को छोडकर कहीं जाता ही नहीं । उनकी दृष्टिमें जब एक भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं तो फिर उनका चित्त कहाँ जाय, कैसे जाय और क्यों जाय ? वे भगवान् के लिये ही जीते हैं । उनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ भगवान् के लिये ही होती हैं । कोई सुननेवाला आ जाय तो वे भगवान् के गुण, प्रभाव आदि की विलक्षण बातों का ज्ञान कराते हैं, भगवान् की लीला-कथाका वर्णन करते हैं, और कोई सुनानेवाला आ जाय तो प्रेमपूर्वक सुनते हैं । न तो कहनेवाला तृप्त होता है, न सुननेवाला । तृप्ति नहीं होती-यह वियोग है और नित्य नया रस मिलता है- यह योग है । इस वियोग और योगके कारण प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।
ॐ तत्सत् !
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।९।।
मुझ में चित्तवाले, मुझ में प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन आपस में (मेरे गुण, प्रभाव आदिको) जनाते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्यनिरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें प्रेम करते हैं।
व्याख्या—
भक्तोंका चित्त भगवान्को छोडकर कहीं जाता ही नहीं । उनकी दृष्टिमें जब एक भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं तो फिर उनका चित्त कहाँ जाय, कैसे जाय और क्यों जाय ? वे भगवान् के लिये ही जीते हैं । उनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ भगवान् के लिये ही होती हैं । कोई सुननेवाला आ जाय तो वे भगवान् के गुण, प्रभाव आदि की विलक्षण बातों का ज्ञान कराते हैं, भगवान् की लीला-कथाका वर्णन करते हैं, और कोई सुनानेवाला आ जाय तो प्रेमपूर्वक सुनते हैं । न तो कहनेवाला तृप्त होता है, न सुननेवाला । तृप्ति नहीं होती-यह वियोग है और नित्य नया रस मिलता है- यह योग है । इस वियोग और योगके कारण प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।
ॐ तत्सत् !
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