Saturday, 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।३।।

जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर जानता है अर्थात् दृढ़ता से मानता है, वह मनुष्यों में असम्मूढ़ (जानकार) है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।

व्याख्या—

महर्षिगण भगवान्‌के आदिको तो नहीं जान सकते, पर वे भगवान्‌को अज-अनादि तो जानते ही हैं । भगवान्‌का अंश होनेसे जीव स्वयं भी अज-अनादि है । अतः वह जैसे भगवान्‌को अज-अनादि जानता है, वैसे ही अपनेको भी अज-अनादि जानता है । कारण कि जैसे संसारसे अलग होकर ही संसारको जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें हम संसारसे अलग ही हैं, ऐसे ही भगवान्‌से अभिन्न होकर ही भगवान्‌को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें हम भगवान्‌से अभिन्न ही हैं । अपनेको अज-अनादि जाननेपर जीव मूढ़तारहित हो जाता है, फिर उसमें पाप कैसे रहेंगे ? क्योंकि पाप तो पीछे पैदा हुए हैं, अज-अनादि पहलेसे हैं ।

ॐ तत्सत् !

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