Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥ २९॥

मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।

व्याख्या—

मनुष्य भगवान्‌को अपनी वस्तुएँ तथा क्रियाएँ अर्पण करे अथवा न करे, भगवान्‌के कुछ फर्क नहीं पड़ता । वे तो सदा समान ही रहते हैं । किसी वर्णविशेष, आश्रमविशेष, जातिविशेष, कर्मविशेष, योग्यताविशेष, आदिका भी भगवान्‌पर कोई असर नहीं पड़ता । अतः प्रत्येक वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय आदिका मनुष्य उन्हें प्राप्त कर सकता है । भगवान्‌ केवल आन्तरिक भावको ही ग्रहण करते हैं ।

भगवान्‌की दृष्टिमें उनके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर वे किससे द्वेष करें और किससे राग करें ? जीव ही राग-द्वेष करके संसारमें बँध जाता है और राग-द्वेषका त्याग करके मुक्त हो जाता है । इसलिये बन्धन और मुक्ति जीवकी ही होती है, भगवान्‌ की नहीं । विषमता जीव करता है, भगवान्‌ नहीं ।

जो प्रेमपूर्वक भगवान्‌ का भजन करते हैं, वे भगवान्‌ में हैं और भगवान्‍ उनमें हैं अर्थात्‌ भगवान्‌ उनमें विशेषरूप से प्रकट हैं । तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वीमें जल सब जगह रहता है, पर कुएँमें विशेष प्रकट (आवरणसहित) होता है, ऐसे ही भगवान्‌ संसारमात्र में परिपूर्ण होते हुए भी भक्तों में विशेष प्रकट होते हैं । भक्त भगवान्‌ से प्रेम करते हैं और भगवान्‌ भक्त से प्रेम करते हैं (गीता ७ । १७) । इसलिये भक्त भगवान्‌ में हैं और भगवान्‌ भक्तों में हैं ।

ॐ तत्सत् !

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