Sunday, 30 April 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ ४॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥ ५॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश (—ये पंचमहाभूत) और मन, बुद्धि तथा अहंकार—इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी यह अपरा प्रकृति है;और हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।

व्याख्या—

जब चेतन-तत्त्व अपरा प्रकृतिके अहंकारके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह ‘परा प्रकृति’ कहलाता है । अपरा (जगत्‌) और परा (जीव)-दोनों ही भगवान्‌की प्रकृतियाँ अर्थात्‌ शक्तियाँ हैं, स्वभाव हैं । शक्तिमान्‌के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती । जैसे नख और केश निष्प्राण होते हुए भी प्राणयुक्त शरीरसे भिन्न नहीं होते, ऐसे ही अपरा प्रकृति जड़ होते हुए भी चेतन परमात्मासे भिन्न नहीं होती । अतः अपरा और परा-दोनों प्रकृतियाँ भगवान्‌का स्वरूप होनेसे भगवान्‌के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रहा !

इस जगत्‌ को जीव ने ही धारण कर रखा है । तात्पर्य है कि जगत्‌ न तो परमात्माकी दृष्टिमें है, न महात्मा की दृष्टि में है, प्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है । जीव ने जगत्‌ को सत्ता और महत्ता देकर उसमें अपनापन कर लिया और जन्म-मरण्रूप बन्धनमें पड़ गया ।

पृथ्वीसे लेकर अहंकार्तक सब जड़ अपरा प्रकृति है । अतः जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि जाननेमें आनेवाले हैं, ऐसे ही अहंकार भी जाननेमें आनेवाला है । उस अहंकारसे तादात्म्य करके जीव अपनेको ‘मैं हूँ’-ऐसा मान लेता है । इसमें ‘मैं’ तो अपरा प्रकृति है और ‘हूँ’ परा प्रकृति है । अहंकार्से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ‘मैं’ का तो अभाव हो जाता है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्तामात्र ‘है’ में परिणत हो जाता है-यही मोक्ष है ।

अहम्‌ को धारण करनेसे जीवने सम्पूर्ण अपरा प्रकृति को धारण कर लिया है । ‘मैं’ हूँ’-इस अभिमानको रखना ही अपरा प्रकृतिको धारण करना है । यदि अहम्‌ अभिमानशून्य हो जाय अर्थात्‌ अभिमान न रहकर अपरा प्रकृतिका शुद्ध अहम्‌ रह जाय तो वह बन्धनकारक नहीं होता; जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, आदि कभी बन्धनकारक नहीं होते ।

ॐ तत्सत् !

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