Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥ २४॥

बुद्धिहीन मनुष्य मेरे परम, अविनाशी और सर्वश्रेष्ठ भावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।

व्याख्या—

सकामभावसे देवताओंकी उपासना करनेवाले मनुष्य भगवान्‌को साधारण मनुष्यकी तरह जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, इसलिये वे भगवान्‌की उपासना नहीं करते । वास्तवमें भगवान्‌ अव्यक्त भी हैं, व्यक्त भी हैं और अव्यक्त तथा व्यक्त-दोनोंसे परे ( निरपेक्ष प्रकाशक ) भी हैं-‘सदसत्तत्परं यत्‌’ (गीता ११ । ३७) ।

ॐ तत्सत् !

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