Saturday, 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।१५।। वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।१६।।

हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवदेव ! हे जगत्पते ! हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपनेआप से अपने आपको जानते हैं। जिन विभूतियों से आप इन सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियों का सम्पूर्णता से वर्णन करने में आप ही समर्थ हैं।

व्याख्या—

आप स्वयं ही स्वयंके ज्ञाता हैं-ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि जाननेवाले भी आप हैं, जाननेमें आनेवाले भी आप ही हैं अर्थात्‌ सब कुछ आप ही हैं । जब आपके सिवाय और कोई है ही नहीं तो फिर कौन किसको जाने ? और क्या जाने ?
अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं कि आप स्वयं ही अपने-आपको जानते हैं, इसलिये अपनी सम्पूर्ण विभूतियोंका वर्णन आप ही कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं । अतः आप अपनी विलक्षण विभूतियोंको विस्तारपूर्वक सम्पूर्णतासे कहिये, जिससे मेरी आपमें अविचल भक्ति हो जाय ।

ॐ तत्सत् !

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