Saturday, 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।१८।।

श्री भगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।

हे जनार्दन ! आप अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनतेसुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।

श्रीभगवान् बोले –

हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेपसे) कहूँगा क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।

व्याख्या—

जैसे भूखे को अन्न और प्यासे को जल प्रिय लगता है, ऐसे ही भक्त अर्जुन को भगवान्‌ के वचन बहुत प्रिय और विलक्षण लग रहे हैं । वे ज्यों-ज्यों भगवान्‌ के वचन सुनते हैं, त्यों-ही-त्यों उनका भगवान्‌ के प्रति विशेष भाव प्रकट होता जात है । कानों के द्वारा उन अमृतमय वचनों को सुनते हुए न तो उन वचनों का अन्त आता है और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है !

भगवान्‌ अनन्त हैं; अतः उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं । इस कारण भगवान्‌ की सम्पूर्ण विभूतियों को न तो कोई कह सकता है और न सुन ही सकता है । अगर कोई कह-सुन ले तो फिर वे अनन्त कैसे रहेंगी ? इसलिये भगवान्‌ यहाँ और अध्याय के अन्त में भी कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है (गीता १०।४०) ।

ॐ तत्सत् !

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