॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्री भगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।१।।
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।२।।
श्रीभगवान् बोले –
हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचन को तुम फिर सुनो? जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामना से कहूँगा क्योंकि तुम मुझ में अत्यन्त प्रेम रखते हो।
मेरे प्रकट होने को न देवता जानते हैं और न महर्षि क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ।
व्याख्या—
अर्जुन भगवान्में अत्यन्त प्रेम रखनेवाले (भक्त) हैं; अतः भगवान् उनके लिये भक्ति-सम्बन्धी परम वचन पुनः कहते हैं ।
परमात्मा जानने का विषय नहीं हैं, प्रत्युत मानने और अनुभव करनेका विषय हैं । उन्हें माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता । जैसे, अपने माता-पिता को हम मान ही सकते हैं, जान नहीं सकते; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उन्हें देखा ही नहीं, देखना सम्भव ही नहीं, माता की अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि माता से जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पितासे जन्म लेते समय हमारे शरीरकी सत्ता ही नहीं थी । भगवान् सम्पूर्ण संसारके पिता हैं- ‘पिताहमस्य जगतो मात धाता पितामहः’ (गीता ९ । १७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता १ । ४३), ‘अहं बीजप्रदः पिता’ (गीता १४ । ४) इसलिये परमात्माको जानना अर्वथा असम्भव है । उन्हें माना ही जा सकता है ।
परमात्मा को हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं । जैसे, माता-पिताको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी (शरीरकी) सत्ता मनते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कार्य है तो उसका कारण भी है । ऐसे ही परमात्माको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं तो परमात्माकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कारण के बिना कार्य कहाँ से आया ? परमात्मा के बिना हम स्वयं कहाँसे आये ? हमारी सत्ता परमात्मा के होने में प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे ‘हम नहीं हैं’-इस तरह अपने होनेपन का कोई निरोध या खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा नहीं हैं’-इस तरह परमात्मा के होनेपन का भी कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता ।
ॐ तत्सत् !
श्री भगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।१।।
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।२।।
श्रीभगवान् बोले –
हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचन को तुम फिर सुनो? जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामना से कहूँगा क्योंकि तुम मुझ में अत्यन्त प्रेम रखते हो।
मेरे प्रकट होने को न देवता जानते हैं और न महर्षि क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ।
व्याख्या—
अर्जुन भगवान्में अत्यन्त प्रेम रखनेवाले (भक्त) हैं; अतः भगवान् उनके लिये भक्ति-सम्बन्धी परम वचन पुनः कहते हैं ।
परमात्मा जानने का विषय नहीं हैं, प्रत्युत मानने और अनुभव करनेका विषय हैं । उन्हें माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता । जैसे, अपने माता-पिता को हम मान ही सकते हैं, जान नहीं सकते; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उन्हें देखा ही नहीं, देखना सम्भव ही नहीं, माता की अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि माता से जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पितासे जन्म लेते समय हमारे शरीरकी सत्ता ही नहीं थी । भगवान् सम्पूर्ण संसारके पिता हैं- ‘पिताहमस्य जगतो मात धाता पितामहः’ (गीता ९ । १७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता १ । ४३), ‘अहं बीजप्रदः पिता’ (गीता १४ । ४) इसलिये परमात्माको जानना अर्वथा असम्भव है । उन्हें माना ही जा सकता है ।
परमात्मा को हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं । जैसे, माता-पिताको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी (शरीरकी) सत्ता मनते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कार्य है तो उसका कारण भी है । ऐसे ही परमात्माको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं तो परमात्माकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कारण के बिना कार्य कहाँ से आया ? परमात्मा के बिना हम स्वयं कहाँसे आये ? हमारी सत्ता परमात्मा के होने में प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे ‘हम नहीं हैं’-इस तरह अपने होनेपन का कोई निरोध या खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा नहीं हैं’-इस तरह परमात्मा के होनेपन का भी कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता ।
ॐ तत्सत् !
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