Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥ २०॥

परन्तु उन-उन कामनाओं से जिनका ज्ञान हरा गया है, ऐसे मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव से नियन्त्रित होकर उस-उस अर्थात् देवताओं के उन-उन नियमों को धारण करते हुए अन्य देवताओं के शरण हो जाते हैं ।

व्याख्या—

जो मनुष्य भगवान्‌ से विमुख हैं और संसार के सम्मुख हैं, वे अपनी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिये विभिन्न देवताओं की शरण लेते हैं । सांसारिक भोग और संग्रह की कामना के कारण ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’; देवताओं के रूपमें भी एक भगवान्‌ ही हैं’-- यह ज्ञान ढक जाता है ।

पूर्वपक्ष-सोलहवें श्लोकमें वर्णित अर्थार्थी और आर्त भक्तमें भी क्रमशः धन पानेकी और दुःख दूर करनेकी कामना है, फिर इस श्लोकमें वर्णित कामनावाले मनुष्योंकी निन्दा क्यों की गयी है ?

उत्तरपक्ष-दोनों प्रकारके मनुष्योंमें परस्पर बड़ी भिन्नता है । सोलहवें श्लोकमें वर्णित मनुष्य सांसारिक हैं । भक्तोंमें भगवान्‌ की मुख्यता है और सांसारिक मनुष्यों में कामनापूर्ति की मुख्यता है । भक्त एक भगवान्‌ का ही आश्रय लेते हैं, पर सांसारिक मनुष्य देवी-देवताओं का आश्रय लेते हैं; क्योंकि उन्हें कामनापूर्ति से मतलब है, देवताओं से नहीं ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment