Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥ २३॥
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥ २४॥

हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधि पूर्वक अर्थात् देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं।
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।

व्याख्या—

‘त्रैविद्या माम्‌’ (९ । २०), ‘अनन्याश्‍चिन्त-यन्तो माम्‌’ (९ । २२) और ‘ते$पि मामेव’ (९ । २३)-तीनों जगह भगवान्‌के द्वारा ‘माम्‌’ पद देनेका तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ, सब मेरा ही स्वरूप हैं । यदि साधकमें कामना न हो और सबमें भगवद्‌बुद्धि हो तो वह किसीकी भी उपासना करे, वह वास्तवमें भगवान्‌की ही उपासना होगी । तात्पर्य है कि यदि निष्कामभाव और भगद्‌बुद्धि हो जाय तो उसका पूजन अविधिपूर्वक नहीं रहेगा, प्रत्युत वह भगवान्‌का ही पूजन हो जायगा ।

जब मनुष्य अपने को भोगों का भोक्ता और संग्रह का स्वामी मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान्‌ से सर्वथा विमुख हो जाता है, तब उसे यह बात याद नहीं रहती कि सबके भोक्ता और स्वामी भगवान्‌ हैं । इस कारण उसक पतन हो जाता है । परन्तु जब उसे चेत हो जाता है कि वास्तवमें सम्पूर्ण भोगों और संग्रहों के स्वामी भगवान्‌ ही हैं, तब वह भगवान्‌ के शरणागत हो जाता है । फिर उसका पतन नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

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