Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥ ८॥
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥ ९ ॥

प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणिसमुदायकी (कल्पोंके आदिमें) मैं अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचना करता हूँ।

हे धनंजय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।

व्याख्या—

प्रकृति परमात्माकी एक अनिवर्चनीय अलौकिक विलक्षण शक्ति है । ऐसी अपनी प्रकृतिको स्वीकार करके ही भगवान्‌ सृष्टिकी रचना करते हैं । कारण कि सृष्टिमें जो परिवर्तन, उत्पत्ति-विनाश, आदि-अन्त होता है, वह सब प्रकृतिमें ही होता है, भगवान्‌में नहीं । इसलिये भगवान्‌ क्रियाशील प्रकृतिको लेकर ही सृष्टिकी रचना करते हैं । इसमें भगवान्‌की कोई असमर्थता, पराधीनता, कमजोरी आदि नहीं है । भगवान्‌का प्रकृतिपर आधिपत्य होनेपर भी उनमें लिप्तता, कर्तृत्व आदि नहीं होते ।

भगवान्‌ उन्हीं प्राणियोंकी रचना करते हैं, जो प्रकृतिके परवश हैं अर्थात्‌ जिन्होंने प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ रखा है ।

कर्मासक्ति, फलासक्ति और कर्तृत्वाभिमानके कारण मनुष्य कर्मोंसे बँध जाता है । परन्तु भगवान्‌ में न तो कर्मासक्ति है, न फलासक्ति है और न कर्तृत्वाभिमान ही है, इसलिये वे सृष्टि-रचना आदि कर्मोंसे नहीं बँधते ।

ॐ तत्सत् !

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