॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ २९॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥ ३०॥
वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं। जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
व्याख्या—
यद्यपि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी भी जन्म-मरणसे मुक्त हो जाते हैं, तथापि शरणागत भक्त जन्म-मरणसे मुक्त होनेके साथ-साथ भगवान्के समग्ररूपकॊ भी जान लेते हैं । ब्रह्म, आध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ-यह भगवान्का समग्ररूप है । इसके भगवान्ने दो विभाग किये हैं । ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), कृत्स्न अध्यात्म (अनन्त योनियोंके अनन्त जीव) तथा अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदिकी सम्पूर्न क्रियाएँ)- यह ‘ज्ञान’ का विभाग है, जिसमें निर्गुणताकी मुख्यता है । अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पाञ्च्भौतिक जगत्), अधिदैव (मन-इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ=देवतासहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप) यह ‘विज्ञान’ का विभाग है, जिसमें सगुणकी मुख्यता है । जिनमें भक्तिके संस्कार हैं; परन्तु जो जरा-मरण्रूप सांसारिक दुःखोंसे छूटना चाहते हैं, ऐसे साधक भगवान्का आश्रय लेकर ज्ञानयोगका साधन करते हैं । उन्हें ‘तत्’ अर्थात् ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म और अखिल कर्मका ज्ञान हो जाता है । परिणामस्वरूप वे जरा-मरणसे मुक्त हो जाते हैं । परन्तु भगवान्को चाहनेवाले भक्त भक्तियोगका साधन करते हैं । वे अधियज्ञसहित ब्रह्मको, अधिदैवसहित सम्पूर्ण अध्यात्मको और अधिभूतसहित अखिल कर्मको जान लेते हैं । परिणामस्वरूप उन्हें जरा-मरणसे मुक्तिके साथ-साथ ‘माम्’ अर्थात् समग्ररूप भगवान्का भी ज्ञान हो जाता है (गीता १८ । ५५) । इसप्रकार विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् भगवान्के समग्ररूपका अनुभव होनेपर उनकी दृष्टिमें एक भगवान्के सिवाय किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती । अतः अन्तकाल आनेपर वे भगवान्को ही प्राप्त होते हैं । कारण कि अन्तकालमें उन्हें जो भी चिन्तन होगा, वह भगवान्का ही चिन्तन होगा- ‘युक्तचेतसः’ । इस तीसवें श्लोकमें आये ‘युक्तचेतसः’ को ही आगे आठवें अध्यायमें ‘अनन्यचेताः’ कहा गया है ।
इस अध्यायके आरम्भमें भगवान् ने ‘माम्’ पदसे अपने समग्ररूपको जाननेकी बात सुनानेकी प्रतिज्ञा की थी, उसी बातक उपसंहार यहाँ ‘मां विदुः’ पदसे करते हैं ।
‘तत्’ को जानेनेवाले संसार से मुक्त हो जाते हैं और ‘माम्’ को जानने वाले समग्ररूप भगवान् को प्राप्त हो जाते हैं । इसी बातको चौथे अध्यायके पैँतीसवें श्लोकमें ‘येन भूतान्यशेषेण द्र्क्ष्यस्यात्मन्यथो मयि’ पदों से और अठारहवें अध्याय के चौवनवें श्लोकमें ‘समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्’ पदोंसे कहा गया है । भक्ति के द्वारा समग्ररूप भगवान् को प्राप्त होने की बात आगे आठवें अध्याय के बाइसवें श्लोक में भी आयी है ।
विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् भगवान्के समग्ररूपका वर्णन करनेका तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन, सत्-असत्, परा-अपरा, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, क्षर-अक्षर आदि जो कुछ भी है, वह सब-का-सब एक भगवान्का ही स्वरूप है । *
पहले जिन्हें परमात्मा, परा और अपरा प्रकृति कहा गया था, उन्हींके यहाँ दो-दो भेद किये गये हैं; जैसे-(१) परमात्मा-ब्रह्म और अधियज्ञ, (२) परा प्रकृति-अध्यात्म और अधिदैव, (३) अपरा प्रकृति-कर्म और अधिभूत । तात्पर्य है कि परमात्मा, परा और अपरा-तीनों ही मिलकर भगवान्का समग्ररूप है ।
....................................................................
* खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः । ।
................(श्रीमद्भा० ११ । २ । ४१)
‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, जीव-जन्तु, दिशाएँ, वृक्ष, नदियाँ, समुद्र-सब-के-सब भगवान्के ही शरीर हैं- ऐसा मानकर भक्त सभी को अनन्यभाव से प्रणाम करता है ।’
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम
सप्तमोऽध्याय:॥ ७॥
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ २९॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥ ३०॥
वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं। जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
व्याख्या—
यद्यपि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी भी जन्म-मरणसे मुक्त हो जाते हैं, तथापि शरणागत भक्त जन्म-मरणसे मुक्त होनेके साथ-साथ भगवान्के समग्ररूपकॊ भी जान लेते हैं । ब्रह्म, आध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ-यह भगवान्का समग्ररूप है । इसके भगवान्ने दो विभाग किये हैं । ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), कृत्स्न अध्यात्म (अनन्त योनियोंके अनन्त जीव) तथा अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदिकी सम्पूर्न क्रियाएँ)- यह ‘ज्ञान’ का विभाग है, जिसमें निर्गुणताकी मुख्यता है । अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पाञ्च्भौतिक जगत्), अधिदैव (मन-इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ=देवतासहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप) यह ‘विज्ञान’ का विभाग है, जिसमें सगुणकी मुख्यता है । जिनमें भक्तिके संस्कार हैं; परन्तु जो जरा-मरण्रूप सांसारिक दुःखोंसे छूटना चाहते हैं, ऐसे साधक भगवान्का आश्रय लेकर ज्ञानयोगका साधन करते हैं । उन्हें ‘तत्’ अर्थात् ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म और अखिल कर्मका ज्ञान हो जाता है । परिणामस्वरूप वे जरा-मरणसे मुक्त हो जाते हैं । परन्तु भगवान्को चाहनेवाले भक्त भक्तियोगका साधन करते हैं । वे अधियज्ञसहित ब्रह्मको, अधिदैवसहित सम्पूर्ण अध्यात्मको और अधिभूतसहित अखिल कर्मको जान लेते हैं । परिणामस्वरूप उन्हें जरा-मरणसे मुक्तिके साथ-साथ ‘माम्’ अर्थात् समग्ररूप भगवान्का भी ज्ञान हो जाता है (गीता १८ । ५५) । इसप्रकार विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् भगवान्के समग्ररूपका अनुभव होनेपर उनकी दृष्टिमें एक भगवान्के सिवाय किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती । अतः अन्तकाल आनेपर वे भगवान्को ही प्राप्त होते हैं । कारण कि अन्तकालमें उन्हें जो भी चिन्तन होगा, वह भगवान्का ही चिन्तन होगा- ‘युक्तचेतसः’ । इस तीसवें श्लोकमें आये ‘युक्तचेतसः’ को ही आगे आठवें अध्यायमें ‘अनन्यचेताः’ कहा गया है ।
इस अध्यायके आरम्भमें भगवान् ने ‘माम्’ पदसे अपने समग्ररूपको जाननेकी बात सुनानेकी प्रतिज्ञा की थी, उसी बातक उपसंहार यहाँ ‘मां विदुः’ पदसे करते हैं ।
‘तत्’ को जानेनेवाले संसार से मुक्त हो जाते हैं और ‘माम्’ को जानने वाले समग्ररूप भगवान् को प्राप्त हो जाते हैं । इसी बातको चौथे अध्यायके पैँतीसवें श्लोकमें ‘येन भूतान्यशेषेण द्र्क्ष्यस्यात्मन्यथो मयि’ पदों से और अठारहवें अध्याय के चौवनवें श्लोकमें ‘समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्’ पदोंसे कहा गया है । भक्ति के द्वारा समग्ररूप भगवान् को प्राप्त होने की बात आगे आठवें अध्याय के बाइसवें श्लोक में भी आयी है ।
विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् भगवान्के समग्ररूपका वर्णन करनेका तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन, सत्-असत्, परा-अपरा, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, क्षर-अक्षर आदि जो कुछ भी है, वह सब-का-सब एक भगवान्का ही स्वरूप है । *
पहले जिन्हें परमात्मा, परा और अपरा प्रकृति कहा गया था, उन्हींके यहाँ दो-दो भेद किये गये हैं; जैसे-(१) परमात्मा-ब्रह्म और अधियज्ञ, (२) परा प्रकृति-अध्यात्म और अधिदैव, (३) अपरा प्रकृति-कर्म और अधिभूत । तात्पर्य है कि परमात्मा, परा और अपरा-तीनों ही मिलकर भगवान्का समग्ररूप है ।
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* खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः । ।
................(श्रीमद्भा० ११ । २ । ४१)
‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, जीव-जन्तु, दिशाएँ, वृक्ष, नदियाँ, समुद्र-सब-के-सब भगवान्के ही शरीर हैं- ऐसा मानकर भक्त सभी को अनन्यभाव से प्रणाम करता है ।’
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम
सप्तमोऽध्याय:॥ ७॥
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