Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥ ३२॥

हे पृथानन्दन! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर नि:सन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या—

पूर्वजन्मके पापीकी अपेक्षा भी वर्तमान जन्मका पापी विशेष दोषी होता है । इसलिये पहले वर्तमान जन्मके पापी (सदुराचारी)- की बात कहकर अब इस श्लोकमें ‘पापयोनयः’ पदसे पूर्वजन्मके पापीकी बात कहते हैं ।

जिसमें दूसरेका आश्रय नहीं हो, ऐसे अनन्य आश्रयको यहाँ ‘व्यपाश्रय’ अर्थात्‌ विशेष आश्रय कहा गया है ।

ॐ तत्सत् !

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