Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥ १०॥

प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्की रचना करती है। हे कुन्तीनन्दन! इसी हेतुसे जगत् का (विविध प्रकारसे) परिवर्तन होता है।

व्याख्या—

भगवान्‌से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चराचरसहित सम्पूर्ण प्राणियोंकी रचना करती है । प्रकृतिमें कितना ही परिवर्तन हो जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं । इसी प्रकार भगवान्‌का अंश भी सदा निर्लिप्त, असंग रहता है । प्रकृति तो परमात्माके अधीन रहकर सृष्टिकी रचना करती है, पर जीव प्रकृतिके अधीन होकर जन्म-मरणके चक्रमें घूमता है । तात्पर्य है कि परमात्मा तो स्वतन्त्र हैं, पर उनका अंश जीवात्मा सुखकी इच्छासे परतन्त्र हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

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