॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥ १७॥
उन चार भक्तोंमें मुझमें निरन्तर लगा हुआ अनन्य भक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
व्याख्या—
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु सर्वथा भगवान्के सम्मुख नहीं होते; परन्तु प्रेमी भक्त (निष्काम होनेसे) सर्वथा भगवान् के सम्मुख होता है । इसलिये भक्त और भगवान्-दोनोंमें परस्पर प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी लीला चलती रहती है ।
ॐ तत्सत् !
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥ १७॥
उन चार भक्तोंमें मुझमें निरन्तर लगा हुआ अनन्य भक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
व्याख्या—
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु सर्वथा भगवान्के सम्मुख नहीं होते; परन्तु प्रेमी भक्त (निष्काम होनेसे) सर्वथा भगवान् के सम्मुख होता है । इसलिये भक्त और भगवान्-दोनोंमें परस्पर प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी लीला चलती रहती है ।
ॐ तत्सत् !
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