Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥ २५॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:॥ २६॥
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥ २७॥

जिस मार्ग में धूमका अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छ: महीनोंवाले दक्षिणायन का अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमा की ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है।

क्योंकि शुक्ल और कृष्ण—ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत् (प्राणिमात्र)-के साथ सम्बन्ध रखने वाली मानी गयी हैं। इनमें से एक गति में जानेवाले को लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गति में जानेवाले को पुन: लौटना पड़ता है।

हे पृथानन्दन ! इन दोनों मार्गों को जाननेवाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अत: हे अर्जुन! तू सब समय में योगयुक्त (समतामें स्थित) हो जा।

व्याख्या—

सकाम (भोग तथा संग्रह की कामना वाला) मनुष्य ही मोहित होता अर्थात्‌ जन्म-मरण में जाता है । शुक्ल और कृष्णमार्ग को जानने वाला मनुष्य निष्काम (योगी) हो जाता है, इसलिये वह जन्म-मरण में नहीं जाता अर्थात्‌ कृष्णमार्ग को प्राप्त नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

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