Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ २१॥

जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवतामें ही मैं उसी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।

व्याख्या—

संसार में प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य दूसरे मनुष्यों को अपनी तरफ लगाना चाहते हैं कि वे मुझ पर श्रद्धा रखें, मेरे शिष्य बनें, मेरा सम्मान करें, मेरे सम्प्रदाय को मानें, मेरी आज्ञा मानें आदि । परन्तु सर्वोपरि होते हुए भी भगवान्‌ के स्वभावमें यह बात नहीं है । जो मनुष्य जहाँ लगना चाहता है, भगवान्‌ उसे वहीं लगा देते हैं- यह भगवान्‌ का पक्षपातरहित स्वभाव है ।

ॐ तत्सत् !

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