Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ ७॥

हे कुन्तीनन्दन! कल्पोंका क्षय होनेपर (महाप्रलयके समय) सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें (महासर्गके समय) मैं फिर उनकी रचना करता हूँ ।

व्याख्या—

पूर्व श्लोकमें वर्णित स्थिति न होनेपर मनुष्यकी क्या दशा होती है- इसे भगवान्‌ इस श्लोकमें बताते हैं । महाप्रलयके समय प्रकृतिके परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी अपने-अपने कर्मों को लेकर भगवान्‌ की प्रकृति में लीन हो जाते हैं । प्रकृति में लीन हुए उन प्राणियों के कर्म जब परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब भगवान्‌में ‘बहु स्यां प्रजायेय’ ‘मैं अनेक रूपों में प्रकट हो जाउँ’ (छान्दोग्य० ६ । २ । ३)--ऐसा संकल्प हो जाता है और महासर्ग का आरम्भ हो जाता है । महासर्ग के आदि में भगवान्‌ उन प्राणियों के परिपक्व कर्मों का फल देकर शुद्ध करने के लिये उनके शरीरों की रचना करते हैं ।

ॐ तत्सत् !

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