Friday, 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ २७॥

हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।

व्याख्या—

ज्ञानयोगी तो संसारके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग करता है, पर भक्त एक भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ता मानता ही नहीं । इसलिये ज्ञानयोगी पदार्थ तथा क्रियाका त्याग करता है, और भक्त पदार्थ तथा क्रियाको भगवान्‌के अर्पण करता है अर्थात्‌ उनको अपना न मानकर भगवान्‌का और भगवत्स्वरूप मानता है । वास्तवमें भक्त अपने-आपको ही भगवान्‌के समर्पित कर देता है । स्वयं समर्पित होनेसे उसके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक क्रियाएँ भी स्वाभाविक भगवान्‌के समर्पित हो जाती हैं ।

पूर्वपक्ष-यदि कोई निषिद्ध क्रिया करके उसे भगवान्‌के अर्पित कर दे तो ?

उत्तरपक्ष- वही वस्तु या क्रिया भगवान्‌के अर्पित की जाती है, जो भगवान्‌के अनुकूल, उनके अनुसार होती है । जिस भक्तका भगवान्‌के प्रति अर्पण करनेका भाव है, उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होगी और न निषिद्ध क्रिया अर्पित ही होगी । भगवान्‌को दिया हुआ अनन्त गुणा होकर मिलता है । यदि कोई निषिद्ध क्रिया भगवान्‌के अर्पित करेगा तो उसका फल भी दण्डरूपसे अनन्त गुणा होकर मिलेगा !

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment